कलाकार वही है जो कल को आकार दे सके., जिसके पदचिन्हों पर दुनिया चल सके.... लेकिन दुर्भाग्य है इस देश का कि अपने ऐश्वर्य, और सोहरत के लिए तथा अकूत धन के लिए और बेइंतहा भोग विलास के लिए.... लोग समझौतावादी हौ गये हैं और सरकारों के किसी भी शोषण और अन्याय तथा मोबलिचिंग के खिलाफ नहीं बोलते उल्टे उनके इन जघन्य अपराधों में सरकार का साथ देते हैं... और इन अपराधों में सहयोग करते हैं.... लेकिन उन्हें लगता है वो सदा अमर रहेंगे | अरे भाई झूठ का साथ दोगे तो तत्कालीन फायदा तो होगा लेकिन दीर्घकालिक नुकसान होगा.... मनुविकृति की रचना करने वालों ने कभी सोचा ही नहीं होगा कि इस घृणित और अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ एक दिन बहुजन लामबंद होंगे और इसे मिटा डालेंगे.... अगर आप अन्याय का साथ दे रहे हैं तो इतिहास आपको कभी माफ नहीं करेगा.... जैसे अमेरिका में काले लोगों का इतिहास हो या भारतीय मनुवादी व्यवस्था.... एक न एक दिन इस शोषण का अंत होना ही है... शोषित लोग किसी को माफ नहीं करेंगे | आज भारतीय कलाकार झूठ का बढ़चढ़कर साथ दे रहे हैं... और चित भी उनका पट भी उनका... वो किसी भी हालत में सत्ता का सर्वोत्तम सुख भोगना चाहते हैं... उनमें कोई चारित्रिक, नैतिक या सामाजिक भाव नहीं है | इसके विपरीत कुछ कलाकार जरूर अपने दायित्व को निभा रहे हैं वे बिना किसी लालच या फायदे के सरकार के मनमानियाँ और मनुष्य के हित के लिए लामबंद होकर सरकार का विरोध भी कर रहे हैं..... तानसेन महान गायक थे लेकिन अकबर के दरबारी थे और वैजू बावरा दरबारी नहीं थे लेकिन महान गायक थे.... लेकिन दरबार द्वारा थोपे गये कई चीजों का वैजू बावरा ने विरोध किया... और बिलकुल निडरता के साथ कि हमें राजा फांसी पर न चढ़ा दे.... सत्ता के उल जुलूल कार्यों का उन्होंने खुलकर विरोध किया और यहाँ तक की तानसेन को एक संगीत समारोह में हरा दिया..... इतिहास में दर्ज ये घटनाएं हमें यही बताती हैं कि क्रूवेल सत्ता के खिलाफ हमें झूकना नहीं है.... कलाकार में अपार ताकत और सत्साहस है उसमें दुनिया बदलने की असीम ऊर्जा है... लेकिन वो छोटे छोटे स्वार्थ और चाटुकारिता में कमजोर और दिशाहीन हो जाता है....
ये तात्कालिक घटनाएं तो यही बता रही हैं..... आपने अच्छा लिखा है..... |
— परमानंद यादव
ये तात्कालिक घटनाएं तो यही बता रही हैं..... आपने अच्छा लिखा है..... |
— परमानंद यादव
"जाति छोड़े और तोड़े बिना समाज में समता और न्याय की कल्पना नहीं की जा सकती।लेकिन इसके रास्ते क्या हों ?यह एक गंभीर सवाल है।ऐसा मैं अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूं।मैंने अनुभव किया है कि जिन साथियों ने समाजवादी आंदोलन / सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान जाति सूचक चिह्न छोड़े ,आंदोलन थमने के बाद उनमें से बहुत सारे साथी धीरे धीरे अपने जाति सूचक चिह्न धारण करते चले गए। जिनने अंतर्जातीय शादी की उनमें से अधिकांश की संतानों की जाति पिता की जाति की होती चली गई। इसलिए मुझे लगने लगा है कि जाति सूचक चिह्नों को छोड़ने और अंतर्जातीय विवाह करने के अलावे जाति छोड़ने और तोड़ने के अन्य रास्ते भी खोजने होंगे। इसपर विचार करने का समय आ गया है। क्योंकि यथास्थितिवादियों का हमला तेज होता जा रहा है। और भविष्य में यह और तेज होने वाला है।"
— घनश्याम संवाद
— घनश्याम संवाद
गुंडों की जुटान को धर्म संसद कहा जाता है तो आपकी आस्था को चोट नहीं पहुँचती?
बुरा नहीं लगता जब गाली-गलौज़ की भाषा बोलने वालों को बाबा, स्वामी वग़ैरह कहा जाता है?
अगर नहीं, तो आपका धर्म सचमुच ख़तरे में है और उसे इनसे और आप जैसों से ख़तरा है।
— अशोक कुमार पांडेय
बुरा नहीं लगता जब गाली-गलौज़ की भाषा बोलने वालों को बाबा, स्वामी वग़ैरह कहा जाता है?
अगर नहीं, तो आपका धर्म सचमुच ख़तरे में है और उसे इनसे और आप जैसों से ख़तरा है।
— अशोक कुमार पांडेय
आम इजराइली ने कहा हे "मूसा तुम पहाड़ पर रोज बैठकर क्या करते हो, आओ चलो भेड़ बकरी चरायें श्रम उत्पादन करें". इतना आराम करना ठीक नही ?
मूसा ने जवाब दिया " पहाड़ सिनाई पर मैं स्वर्ग के फ़रिश्ते से धर्म चर्चा कर रहा था, जो ईश्वर का पैगाम लाया है, परमात्मा चाहते हैं मैं यहूदी नाम के धर्म की नींव रखूं, ईश्वर की वाणी से निकली हर पवित्र शब्द को तोराह नाम के धर्म ग्रंथ में लिखूं !
मैं कोई मामूली मूसा नही हूँ, मसीह मूसा हूँ... मेरा सम्मान करो, तुम मुझे श्रम करने के लिए नही कह सकते. आओ मुझसे धर्म ज्ञान लो. मेरे आदेश पर पूरे इजराइल की धरती पर मंदिर बनाओ !
मूसा ने अपने भाई आरोन को यहूदी धर्म का मुख्य पवित्र पुजारी बनाया. मंदिर पुजारी पद लेवी कबिलें के वंशजों के लिए आरक्षित कर दिया. अब्राहम का परपोता लेवी था, और लेवी का परपोता मूसा. इसी लिए मूसा ने लेवी वंश को पवित्र घोषित कर धर्म स्थलों पर कब्ज़ा कर लिया !
यहूदी धर्म उच नीच आर्थिक आधार पर भेद भाव अपने चरम पर था. इजराइल पर रोमन साम्राज्य का शासन स्थापित था. यहूदी धर्म पुजारी रोमन साम्राज्य के दलाल थे. उसी दौर में यहूदी गरीब परिवार में जोसेफ और मैरी के मिलन से जीसस का जन्म हुआ !
एक तरफ यहूदी धर्म पुजारी व्यापारी जमींदार रोमन साम्राज्य के इशारों पर आम इजराइली आवाम का खून चूस रहे थे. तो दूसरी तरफ यहूदी धर्म पुजारियों ने यहूदी मंदिरों को व्यापारी और सूदखोरों के हवाले किया था. आम आदमी परेशान था, उसे रोमन साम्राज्य और धर्म पुजारी व्यापारी शोषण कर रहे थे !
जीसस क्राइस्ट ने यहूदी धर्म के अन्याय असमानता और मंदिरों को सुतखोरों से आज़ाद कराने के लिए आंदोलन चलाया. जीसस क्राइस्ट के नेतृत्व में संगठित आवाम को देखकर धर्म पुजारी और रोमन साम्राज्य हिल गया !
यहूदी धर्म और रोमन साम्राज्य को जीसस विद्रोही लगे. उन्हें जीसस खतरा लगे, उनपर यहूदी धर्म का अपमान करने का आरोप लगाया गया. ईशनिंदा कानून के तहत उन्हें मौत की सज़ा सुनाई गई !
और क्रन्तिकारी जीसस क्राइस्ट के हाथों पैरों में कील ठोक कर क्रॉस पर चढ़ा दिया गया !
बाद गिस्पेल लीखने वालों ने और पादरियों ने जीसस क्राइस्ट के आंदोलन को ईश्वर के धार्मिक उपदेश से जोड़ दिया !
— क्रांति कुमार
मूसा ने जवाब दिया " पहाड़ सिनाई पर मैं स्वर्ग के फ़रिश्ते से धर्म चर्चा कर रहा था, जो ईश्वर का पैगाम लाया है, परमात्मा चाहते हैं मैं यहूदी नाम के धर्म की नींव रखूं, ईश्वर की वाणी से निकली हर पवित्र शब्द को तोराह नाम के धर्म ग्रंथ में लिखूं !
मैं कोई मामूली मूसा नही हूँ, मसीह मूसा हूँ... मेरा सम्मान करो, तुम मुझे श्रम करने के लिए नही कह सकते. आओ मुझसे धर्म ज्ञान लो. मेरे आदेश पर पूरे इजराइल की धरती पर मंदिर बनाओ !
मूसा ने अपने भाई आरोन को यहूदी धर्म का मुख्य पवित्र पुजारी बनाया. मंदिर पुजारी पद लेवी कबिलें के वंशजों के लिए आरक्षित कर दिया. अब्राहम का परपोता लेवी था, और लेवी का परपोता मूसा. इसी लिए मूसा ने लेवी वंश को पवित्र घोषित कर धर्म स्थलों पर कब्ज़ा कर लिया !
यहूदी धर्म उच नीच आर्थिक आधार पर भेद भाव अपने चरम पर था. इजराइल पर रोमन साम्राज्य का शासन स्थापित था. यहूदी धर्म पुजारी रोमन साम्राज्य के दलाल थे. उसी दौर में यहूदी गरीब परिवार में जोसेफ और मैरी के मिलन से जीसस का जन्म हुआ !
एक तरफ यहूदी धर्म पुजारी व्यापारी जमींदार रोमन साम्राज्य के इशारों पर आम इजराइली आवाम का खून चूस रहे थे. तो दूसरी तरफ यहूदी धर्म पुजारियों ने यहूदी मंदिरों को व्यापारी और सूदखोरों के हवाले किया था. आम आदमी परेशान था, उसे रोमन साम्राज्य और धर्म पुजारी व्यापारी शोषण कर रहे थे !
जीसस क्राइस्ट ने यहूदी धर्म के अन्याय असमानता और मंदिरों को सुतखोरों से आज़ाद कराने के लिए आंदोलन चलाया. जीसस क्राइस्ट के नेतृत्व में संगठित आवाम को देखकर धर्म पुजारी और रोमन साम्राज्य हिल गया !
यहूदी धर्म और रोमन साम्राज्य को जीसस विद्रोही लगे. उन्हें जीसस खतरा लगे, उनपर यहूदी धर्म का अपमान करने का आरोप लगाया गया. ईशनिंदा कानून के तहत उन्हें मौत की सज़ा सुनाई गई !
और क्रन्तिकारी जीसस क्राइस्ट के हाथों पैरों में कील ठोक कर क्रॉस पर चढ़ा दिया गया !
बाद गिस्पेल लीखने वालों ने और पादरियों ने जीसस क्राइस्ट के आंदोलन को ईश्वर के धार्मिक उपदेश से जोड़ दिया !
— क्रांति कुमार
दुनिया में ऐसे भी समाज होते हैं जहां छुटपन से ही किताबें जीवन का मूलभूत अंग होती हैं। विज्ञान, तकनीक, पर्यावरण, भूगोल, अंतरिक्ष, मशीन, जीव, जल, जंगल, हवा व समाज इत्यादि विषयों की सचित्र रुचिकर किताबें।
ज्ञान खेल-खेल में ही जीवन का मूलभूत अवयव बन जाता है। चूंकि यह स्वतःस्फूर्त तरीके से होता है तो किताबों के प्रति रुचि आजीवन बनी रहती है, पीढ़ी दर पीढ़ी संवर्धित होती रहती है।
आदि हर वर्ष अपने नाना नानी, मामा मामी, मौसी मौसा, ममेरे व मौसेरे भाई बहन इत्यादि के साथ कई-कई दिनों के लिए घने जंगलों में कैंपिग के लिए जाते हैं। पहले किताबों को पढ़ने के लिए वयस्क की जरूरत होती थी। अब एक-दूसरे की सहायता से खुद ही पढ़ लेते हैं।
आदि अपने ममेरे व मौसेरे भाइयों के साथ किताबें पढ़ने का खेल खेलते हुए। किताबें पढ़ने का खेल दिन में कई बार न हो तो बवाल हो जाता है। एक भी किताब कामिक-किताब नहीं है। हर एक किताब किसी न किसी विषय से संबंधित होती है जो खेल-खेल में सिखाती रहती है।
आदि को किताबें पढ़ने का अतिरिक्त शौक है। लगभग सवा-पांच वर्षीय आदि अब तक कई हजार किताबें पढ़ चुके हैं। हर एक किताब अनेक-अनेक बार।
— विवेक उमराव
ज्ञान खेल-खेल में ही जीवन का मूलभूत अवयव बन जाता है। चूंकि यह स्वतःस्फूर्त तरीके से होता है तो किताबों के प्रति रुचि आजीवन बनी रहती है, पीढ़ी दर पीढ़ी संवर्धित होती रहती है।
आदि हर वर्ष अपने नाना नानी, मामा मामी, मौसी मौसा, ममेरे व मौसेरे भाई बहन इत्यादि के साथ कई-कई दिनों के लिए घने जंगलों में कैंपिग के लिए जाते हैं। पहले किताबों को पढ़ने के लिए वयस्क की जरूरत होती थी। अब एक-दूसरे की सहायता से खुद ही पढ़ लेते हैं।
आदि अपने ममेरे व मौसेरे भाइयों के साथ किताबें पढ़ने का खेल खेलते हुए। किताबें पढ़ने का खेल दिन में कई बार न हो तो बवाल हो जाता है। एक भी किताब कामिक-किताब नहीं है। हर एक किताब किसी न किसी विषय से संबंधित होती है जो खेल-खेल में सिखाती रहती है।
आदि को किताबें पढ़ने का अतिरिक्त शौक है। लगभग सवा-पांच वर्षीय आदि अब तक कई हजार किताबें पढ़ चुके हैं। हर एक किताब अनेक-अनेक बार।
— विवेक उमराव
संगठित धर्म किस तरह काम करता है।
—
संगठित धर्म किस तरह काम करता है। यह हर जगह वहीं के लोगों के बीच से, उन्हीं के समुदाय से एक प्यादा तैयार करता है, जो लोगों को मूल संघर्ष से दूर रखने में मदद करता है।
लूटने वाले जब लूट चुके होते हैं तब धर्म मरहम लेकर आता है। जब तक लूट मची रहती है, धर्म प्रार्थना में लीन रहता है। मौन रहता है।
वह मूल लोगों के ज़ख्म और मरहम के बीच बैठ जाता है। धर्म, धन की रक्षा करता है और लोगों का इस्तेमाल खुद के बचे रहने के लिए करता है।
अगर कोई समझता है कि कोई संगठित धर्म, कॉरपोरेट से लोगों को बचा लेगा, उसके संसाधनों की रक्षा करेगा तो यह भ्रम है। सत्ता, धर्म को गले लगा लेती है।
धर्म, सत्ता के साथ खुद को एडजस्ट करता रहता है। बाद में वह खुद सत्ता बन जाता है और उसके खिलाफ़ बोलने वालों की जीभ काट लेता है।
वह लोगों को तथ्य और सत्य दोनों को नजरंदाज कर सत्ता के साथ एडजस्ट करते रहने में मदद करता है। और सेवा के नाम पर मरहम पट्टी करता रहता है। इसी को अपना धर्म समझता है।
पर थोड़े से चेतना संपन्न लोग ही धर्म के खेमे से आगे निकल आते हैं।
— जसिंता केरकेट्टा
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संगठित धर्म किस तरह काम करता है। यह हर जगह वहीं के लोगों के बीच से, उन्हीं के समुदाय से एक प्यादा तैयार करता है, जो लोगों को मूल संघर्ष से दूर रखने में मदद करता है।
लूटने वाले जब लूट चुके होते हैं तब धर्म मरहम लेकर आता है। जब तक लूट मची रहती है, धर्म प्रार्थना में लीन रहता है। मौन रहता है।
वह मूल लोगों के ज़ख्म और मरहम के बीच बैठ जाता है। धर्म, धन की रक्षा करता है और लोगों का इस्तेमाल खुद के बचे रहने के लिए करता है।
अगर कोई समझता है कि कोई संगठित धर्म, कॉरपोरेट से लोगों को बचा लेगा, उसके संसाधनों की रक्षा करेगा तो यह भ्रम है। सत्ता, धर्म को गले लगा लेती है।
धर्म, सत्ता के साथ खुद को एडजस्ट करता रहता है। बाद में वह खुद सत्ता बन जाता है और उसके खिलाफ़ बोलने वालों की जीभ काट लेता है।
वह लोगों को तथ्य और सत्य दोनों को नजरंदाज कर सत्ता के साथ एडजस्ट करते रहने में मदद करता है। और सेवा के नाम पर मरहम पट्टी करता रहता है। इसी को अपना धर्म समझता है।
पर थोड़े से चेतना संपन्न लोग ही धर्म के खेमे से आगे निकल आते हैं।
— जसिंता केरकेट्टा
धर्म अपने आप में एक कूकुन होता है।
—
इसे आप एक कुँआ भी कह सकते हैं। आप जब तक उसमें हैं आपको वैश्विक शासक भी घोषित कर दिया जाए, तो भी आप सकरात्मक रूप से कुछ भी करने में असमर्थ रहेंगे।
क्योंकि जो दिमाग सकरात्मक सोच को जमीं पर उतार सकता है, वह दिमाग ही वहाँ धर्म के कूकुन में बंद रहता है।
झारखण्ड या कहें भारतीय आदिवासी दुनिया में चर्च को आदिवासियों ने अपनी मुक्तिदाता के रूप में देखा, लेकिन चर्च मुक्तिबोध सोच तक पहुंच ही नहीं पाया।
वह पक्षपाती सोच से बाहर कभी आ नहीं पाया। वह चाहता तो हजारों आदिवासियों को दुनियाभर में उच्च शिक्षा दिला देता। भारत में सबसे अधिक शिक्षित समूह तैयार करता।
हर क्षेत्र में सृजनात्मकता की बाढ़ ला देता। लॉ कालेज, तकनीकी कालेज, मेडिकल कालेज, कृषि कालेज आदि तमाम तरह के प्रशिक्षण संस्थानों की लाईन लगा देता।
सभी आदिवासियों, पिछड़े समाज को पक्षपातहीन रूप से आगे बढ़ाता और सच में एक मुक्तिदाता बनता। लेकिन रचनात्मक, विभेदहीन सोच की कमी ने कभी ऐसा होने नहीं दिया।
यदि अंग्रेजी माध्यम के स्कूल ही सभी जगह खोल देता तब भी स्थिति कुछ और होती। पाँचवीं अनुसूची, खेत खलिहान, जंगल पहाड़, खनिज पदार्थ की लूट कब बंद हो चुका होता।
लेकिन सिर्फ एक पक्षीय धार्मिक सोच ने कभी किसी को एकक्षत्र सामाजिक सामूदायिक नेतृत्व का कोई मौका नहीं दिया। आपको धन्यवाद कि आपने मधुमक्खी के छत पर हाथ रख दिया है। सावधान रहें, मधुमक्खी काटने से परहेज़ नहीं करती हैं।
— नेह इन्दवार
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इसे आप एक कुँआ भी कह सकते हैं। आप जब तक उसमें हैं आपको वैश्विक शासक भी घोषित कर दिया जाए, तो भी आप सकरात्मक रूप से कुछ भी करने में असमर्थ रहेंगे।
क्योंकि जो दिमाग सकरात्मक सोच को जमीं पर उतार सकता है, वह दिमाग ही वहाँ धर्म के कूकुन में बंद रहता है।
झारखण्ड या कहें भारतीय आदिवासी दुनिया में चर्च को आदिवासियों ने अपनी मुक्तिदाता के रूप में देखा, लेकिन चर्च मुक्तिबोध सोच तक पहुंच ही नहीं पाया।
वह पक्षपाती सोच से बाहर कभी आ नहीं पाया। वह चाहता तो हजारों आदिवासियों को दुनियाभर में उच्च शिक्षा दिला देता। भारत में सबसे अधिक शिक्षित समूह तैयार करता।
हर क्षेत्र में सृजनात्मकता की बाढ़ ला देता। लॉ कालेज, तकनीकी कालेज, मेडिकल कालेज, कृषि कालेज आदि तमाम तरह के प्रशिक्षण संस्थानों की लाईन लगा देता।
सभी आदिवासियों, पिछड़े समाज को पक्षपातहीन रूप से आगे बढ़ाता और सच में एक मुक्तिदाता बनता। लेकिन रचनात्मक, विभेदहीन सोच की कमी ने कभी ऐसा होने नहीं दिया।
यदि अंग्रेजी माध्यम के स्कूल ही सभी जगह खोल देता तब भी स्थिति कुछ और होती। पाँचवीं अनुसूची, खेत खलिहान, जंगल पहाड़, खनिज पदार्थ की लूट कब बंद हो चुका होता।
लेकिन सिर्फ एक पक्षीय धार्मिक सोच ने कभी किसी को एकक्षत्र सामाजिक सामूदायिक नेतृत्व का कोई मौका नहीं दिया। आपको धन्यवाद कि आपने मधुमक्खी के छत पर हाथ रख दिया है। सावधान रहें, मधुमक्खी काटने से परहेज़ नहीं करती हैं।
— नेह इन्दवार
महात्मा गांधी को गाली देने की छूट सबको होनी चाहिए। बल्कि अगर जरूरत हो तो सरकार को ऐसे कैंप आयोजित करवाने चाहिए, जहां लोग इकट्ठा होकर गांधी को गालियां दे सकें। अपने मन की भड़ास निकाल सकें। एक मैंडम ने एक दफा गांधी का पुतला बनाकर उसपर गोलियां दागी थीं। ऐसे आयोजन भी कराये जा सकते हैं। थप्पड़ भी मारे जा सकते हैं गांधी के पुतले को। गांधी के देश में लोगों की कुंठा का यही उचित और मनोवैज्ञानिक इलाज है। इसी से लोग स्वस्थ होंगे।
कम से कम मैं गांधी निंदा को ईश निंदा का रूप देने के पक्ष में नहीं हूं। इस देश में जिस सहजता से हर स्टेशन पर हर किताब की दुकान पर गांधी वध क्यों किताब बिकती है, वही इस देश का मिजाज है। जिनमें कुंठा है, उन्हें जाहिर कर लेने दीजिये। गांधी का ही तरीका है। अपने जीते जी गांधी ने भी क्या कम गालियां सुनी हैं। वे खुद को दी गयी गालियां भी पूरा अटेंशन देकर सुनते थे और भरसक उसका जवाब देने की कोशिश करते थे।
— पुष्यमित्र
कम से कम मैं गांधी निंदा को ईश निंदा का रूप देने के पक्ष में नहीं हूं। इस देश में जिस सहजता से हर स्टेशन पर हर किताब की दुकान पर गांधी वध क्यों किताब बिकती है, वही इस देश का मिजाज है। जिनमें कुंठा है, उन्हें जाहिर कर लेने दीजिये। गांधी का ही तरीका है। अपने जीते जी गांधी ने भी क्या कम गालियां सुनी हैं। वे खुद को दी गयी गालियां भी पूरा अटेंशन देकर सुनते थे और भरसक उसका जवाब देने की कोशिश करते थे।
— पुष्यमित्र
हिंदुत्ववादियों की सबसे बड़ी मुसीबत है कि जिस अस्थिशेष, कृषकाय, निहत्थे बूढ़े महात्मा को वे 73 साल पहले मार चुके हैं, वह आजतक मरा ही नहीं। वे दुनिया में कहीं भी चले जाएं, वह बूढ़ा महात्मा वहीं खड़ा मुस्कराता मिलता है। उसकी लाठी से हिंसक पिस्तौल हर बार हार जाती है और हिंदुत्ववादी हर बार तिलमिलाकर उस पर और हमले करते हैं।
गांधी पर हमला करने वाले सिरफिरों को याद रखना चाहिए कि महात्मा गांधी को दुनिया के 150 देशों ने अपने डाक टिकट पर सजा रखा है। महात्मा गांधी भारत के अकेले ऐसे महापुरुष हैं, जिनकी भारत सहित 84 देशों में मूर्तियां लगी हैं। पाकिस्तान, चीन से लेकर छोटे-मोटे और बड़े-बड़े देशों तक में बापू की मूर्तियां स्थापित हैं। जिस ब्रिटेन के खिलाफ वे जिंदगी भर लड़े, उस ब्रिटेन ने भी उनकी प्रतिमाएं लगा रखी हैं। महात्मा गांधी को मार पाना अब नामुमकिन है।
महात्मा गांधी इस दुनिया के एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिनके खिलाफ उनकी मौत के लगभग सात दशक बाद भी घृणा अभियान चल रहा है। लोग वहीं हैं, उसी जहरीली विचारधारा के लोग, जिसके चलते एक कायर ने महात्मा की हत्या की थी। मेरी जानकारी में भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहां पर एक नमकहराम पार्टी सरकार में है और उसके संरक्षण में देश के राष्ट्रीय आंदोलन, महापुरुषों और राष्ट्रपिता को गालियां दी जा रही हैं।
जब महात्मा गांधी राष्ट्रीय आंदोलन की अगुवाई कर रहे थे, तब इसी विचारधारा के लोग अंग्रेजों की तरफ से मुखबिरी कर रहे थे और गांधी को मुस्लिम-परस्त बता रहे थे। अब इतने वर्षों बाद पहली बार संघी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में हैं और नंगा नाच रहे हैं। धर्म संसद के बहाने महात्मा गांधी को गाली दी जा रही है, पूर्व प्रधानमंत्री को गोली मारने की बात कही जा रही है, मुसलमानों के खिलाफ नरसंहार का आह्वान किया जा रहा है और कोई सत्ताधारी नेता इसकी निंदा तक नहीं करता, कार्रवाई करने की बात बड़ी दूर है।
वॉट्सएप विषविद्यालय के प्रभाव में आकर यहां पर आम लोग ऐसा करते हैं तो हम चिढ़कर उन्हें जवाब दे देते हैं, लेकिन इस हालत में हम क्या करें अगर देश में सरकार चलाने वाली पार्टी ही ऐसा करने लगे?
सत्ता में आते ही उन्होंने देशद्रोही खोजना क्यों शुरू किया था? क्योंकि उन्हें वे सारे काम करने हैं जो देश के खिलाफ हैं और देश की आत्मा पर प्रहार करने जैसे हैं। वे राष्ट्रीय आंदोलन को बार-बार अपमानित करते हैं, वे इस देश के लिए अपने प्राण देने वालों को बार-बार अपमानित करते हैं, वे देश के लिए शहीद हुए जवानों के पोस्टर लगाकर चुनाव में वोट मांगते हैं, वे चुनाव के पहले अंग्रेजों की तरह जनता को हिंदू मुसलमान में बांटने का प्रयास करते हैं। वे वह सब कर रहे हैं जो देशद्रोह की श्रेणी में है। वे बेहद शातिर लोग हैं, जो लोग यह सवाल उठाते, उन्हें पहले से ही देशद्रोही की श्रेणी में डाल दिया गया है। ज्यादातर लोग चुप हैं। हम भी चुप हैं। आप भी चुप हैं। देश का विपक्ष भी लगभग चुप है। वे निर्बाध होकर इस देश के संविधान और भारत के विचार पर ताबड़तोड़ हमला कर रहे हैं।
जो लोग ऐसा कर रहे हैं, उन्होंने खुद को देश और धर्म का ठेकेदार भी घोषित किया हुआ है। धर्म, संस्कृति और राष्ट्रवाद का चोला ओढ़कर वे राष्ट्रीय अस्मिता पर बार-बार गंभीर चोट पहुंचा रहे हैं।
आप सोचेंगे कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं? क्योंकि उन्हें देश पर कब्जा चाहिए। क्योंकि उन्हें इस देश की ताकत को, एकता को, अखंडता को खंडित करना है। उन्हें इस देश को कमजोर करना है ताकि जनता उनके कुकृत्यों का विरोध न कर सके।
वे हिंदू राष्ट्र का राग अलाप रहे हैं जिसे कभी सरदार पटेल ने 'पागलपन' बताया था। अब यह आपको तय करना है कि 70 साल पहले लाखों लोगों के बलिदान से विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का जो गौरव आपने हासिल किया था, क्या उसे हिंदू राष्ट्र के 'पागलपन' के लिए गवां देना है या अपना लोकतंत्र बचाना है?
— कृष्णकांत
गांधी पर हमला करने वाले सिरफिरों को याद रखना चाहिए कि महात्मा गांधी को दुनिया के 150 देशों ने अपने डाक टिकट पर सजा रखा है। महात्मा गांधी भारत के अकेले ऐसे महापुरुष हैं, जिनकी भारत सहित 84 देशों में मूर्तियां लगी हैं। पाकिस्तान, चीन से लेकर छोटे-मोटे और बड़े-बड़े देशों तक में बापू की मूर्तियां स्थापित हैं। जिस ब्रिटेन के खिलाफ वे जिंदगी भर लड़े, उस ब्रिटेन ने भी उनकी प्रतिमाएं लगा रखी हैं। महात्मा गांधी को मार पाना अब नामुमकिन है।
महात्मा गांधी इस दुनिया के एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिनके खिलाफ उनकी मौत के लगभग सात दशक बाद भी घृणा अभियान चल रहा है। लोग वहीं हैं, उसी जहरीली विचारधारा के लोग, जिसके चलते एक कायर ने महात्मा की हत्या की थी। मेरी जानकारी में भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहां पर एक नमकहराम पार्टी सरकार में है और उसके संरक्षण में देश के राष्ट्रीय आंदोलन, महापुरुषों और राष्ट्रपिता को गालियां दी जा रही हैं।
जब महात्मा गांधी राष्ट्रीय आंदोलन की अगुवाई कर रहे थे, तब इसी विचारधारा के लोग अंग्रेजों की तरफ से मुखबिरी कर रहे थे और गांधी को मुस्लिम-परस्त बता रहे थे। अब इतने वर्षों बाद पहली बार संघी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में हैं और नंगा नाच रहे हैं। धर्म संसद के बहाने महात्मा गांधी को गाली दी जा रही है, पूर्व प्रधानमंत्री को गोली मारने की बात कही जा रही है, मुसलमानों के खिलाफ नरसंहार का आह्वान किया जा रहा है और कोई सत्ताधारी नेता इसकी निंदा तक नहीं करता, कार्रवाई करने की बात बड़ी दूर है।
वॉट्सएप विषविद्यालय के प्रभाव में आकर यहां पर आम लोग ऐसा करते हैं तो हम चिढ़कर उन्हें जवाब दे देते हैं, लेकिन इस हालत में हम क्या करें अगर देश में सरकार चलाने वाली पार्टी ही ऐसा करने लगे?
सत्ता में आते ही उन्होंने देशद्रोही खोजना क्यों शुरू किया था? क्योंकि उन्हें वे सारे काम करने हैं जो देश के खिलाफ हैं और देश की आत्मा पर प्रहार करने जैसे हैं। वे राष्ट्रीय आंदोलन को बार-बार अपमानित करते हैं, वे इस देश के लिए अपने प्राण देने वालों को बार-बार अपमानित करते हैं, वे देश के लिए शहीद हुए जवानों के पोस्टर लगाकर चुनाव में वोट मांगते हैं, वे चुनाव के पहले अंग्रेजों की तरह जनता को हिंदू मुसलमान में बांटने का प्रयास करते हैं। वे वह सब कर रहे हैं जो देशद्रोह की श्रेणी में है। वे बेहद शातिर लोग हैं, जो लोग यह सवाल उठाते, उन्हें पहले से ही देशद्रोही की श्रेणी में डाल दिया गया है। ज्यादातर लोग चुप हैं। हम भी चुप हैं। आप भी चुप हैं। देश का विपक्ष भी लगभग चुप है। वे निर्बाध होकर इस देश के संविधान और भारत के विचार पर ताबड़तोड़ हमला कर रहे हैं।
जो लोग ऐसा कर रहे हैं, उन्होंने खुद को देश और धर्म का ठेकेदार भी घोषित किया हुआ है। धर्म, संस्कृति और राष्ट्रवाद का चोला ओढ़कर वे राष्ट्रीय अस्मिता पर बार-बार गंभीर चोट पहुंचा रहे हैं।
आप सोचेंगे कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं? क्योंकि उन्हें देश पर कब्जा चाहिए। क्योंकि उन्हें इस देश की ताकत को, एकता को, अखंडता को खंडित करना है। उन्हें इस देश को कमजोर करना है ताकि जनता उनके कुकृत्यों का विरोध न कर सके।
वे हिंदू राष्ट्र का राग अलाप रहे हैं जिसे कभी सरदार पटेल ने 'पागलपन' बताया था। अब यह आपको तय करना है कि 70 साल पहले लाखों लोगों के बलिदान से विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का जो गौरव आपने हासिल किया था, क्या उसे हिंदू राष्ट्र के 'पागलपन' के लिए गवां देना है या अपना लोकतंत्र बचाना है?
— कृष्णकांत
इस दुनिया में वह लोग भी जीते हैं जो धर्म के द्वारा निर्मित काल्पनिक भय अथवा लोभ से ग्रस्त नहीं हैं अथवा उससे बाहर आ चुके हैं तथा निरंतर आ रहे हैं.
मैं सकारात्मक हूँ इस बारे में कि हमारे बच्चे वो गलती नहीं करेंगे जो हमने करी तथा इस धर्म नामक बीमारी से मुक्त होंगे.
भविष्य सुनहरा है तथा नए खून से बहुत सी आशाएं है.
अभी पढ़ा कि धर्म को न मानने वाले लोगों की संख्या अब ईसाई और मुस्लिम के बाद तीसरी हो गई है तथा हिन्दू चौथे नंबर पर है.
सुनने में आया है कि अगले पांच सालों में धर्म को न मानने वाले दूसरे स्थान पर आ जायेंगे.
लोग जागरूक हो रहे हैं जबकि पहले ऐसा नहीं था.
हैप्पी न्यू इयर :)
— बालेन्दु गोस्वामी
मैं सकारात्मक हूँ इस बारे में कि हमारे बच्चे वो गलती नहीं करेंगे जो हमने करी तथा इस धर्म नामक बीमारी से मुक्त होंगे.
भविष्य सुनहरा है तथा नए खून से बहुत सी आशाएं है.
अभी पढ़ा कि धर्म को न मानने वाले लोगों की संख्या अब ईसाई और मुस्लिम के बाद तीसरी हो गई है तथा हिन्दू चौथे नंबर पर है.
सुनने में आया है कि अगले पांच सालों में धर्म को न मानने वाले दूसरे स्थान पर आ जायेंगे.
लोग जागरूक हो रहे हैं जबकि पहले ऐसा नहीं था.
हैप्पी न्यू इयर :)
— बालेन्दु गोस्वामी
बाबाजी, लल्लन और शंका समाधान
लल्लन के घर एक बाबाजी आये।
घर मे, जब दान-दक्षिणा हो गया और बाबाजी ने श्रद्धालुओं को आशीर्वाद दे दिया। तब पिताजी को याद आया कि लल्लन ने आशीर्वाद नहीं लिया।
पिताजी ने तुरन्त लल्लन को आवाज दी। लल्लन हाजिर हो गया।
पिताजी - "बेटा ये बाबाजी बहुत पहुँचे हुए हैं, इनसे आशीर्वाद ले लो।"
लल्लन - "पिताजी! मैं आशीर्वाद तो लूँगा। उसके पहले बाबाजी को मेरा शंका समाधान करना होगा।"
बाबाजी तैयार हो गए...
लल्लन - "आपके हिसाब से सृष्टि और इंसानों को किसने बनाया है?"
बाबाजी - "बेटा! इसमें भी पूछने की बात है। सबको पता है, ईश्वर ने ही ये सृष्टि, चांद-तारे, पृथ्वी और इंसानों को बनाया है।"
लल्लन - "नास्तिकों को भी?"
बाबाजी एकदम सकपका गए। उनको श्रद्धालुओं के घर ऐसे सवाल की उम्मीद न थी। फिर भी बोले..
" हाँ, नास्तिकों को भी। लेकिन.."
"लेकिन क्या बाबाजी?"
"बेटा! सच तो यह है कि नास्तिक भटके हुए इंसान हैं।"
लल्लन - "ईश्वर की मर्जी से?"
बाबाजी - "नहीं।"
"...तो क्या उनपर ईश्वर की मर्जी नहीं चलती?"
"ऐसा न कहो बेटा।"
लल्लन - "...जिनको ईश्वर ने ही बनाया और उन्होंने ईश्वर को ही खारिज कर दिया। इससे क्या समझा जाय?"
बाबाजी लल्लन के पिता को देखते हुए..
"आपका बच्चा नादान है। ईश्वर से अनजान है।"
उधर पिताजी लल्लन को भला-बुरा कहने लगे।
"तुम सुधरने वाले नहीं हो।"
ईधर बाबाजी..
लल्लन को बिना आशीर्वाद दिये आराम से निकल लिये।
– शेषनाथ वर्णवाल
लल्लन के घर एक बाबाजी आये।
घर मे, जब दान-दक्षिणा हो गया और बाबाजी ने श्रद्धालुओं को आशीर्वाद दे दिया। तब पिताजी को याद आया कि लल्लन ने आशीर्वाद नहीं लिया।
पिताजी ने तुरन्त लल्लन को आवाज दी। लल्लन हाजिर हो गया।
पिताजी - "बेटा ये बाबाजी बहुत पहुँचे हुए हैं, इनसे आशीर्वाद ले लो।"
लल्लन - "पिताजी! मैं आशीर्वाद तो लूँगा। उसके पहले बाबाजी को मेरा शंका समाधान करना होगा।"
बाबाजी तैयार हो गए...
लल्लन - "आपके हिसाब से सृष्टि और इंसानों को किसने बनाया है?"
बाबाजी - "बेटा! इसमें भी पूछने की बात है। सबको पता है, ईश्वर ने ही ये सृष्टि, चांद-तारे, पृथ्वी और इंसानों को बनाया है।"
लल्लन - "नास्तिकों को भी?"
बाबाजी एकदम सकपका गए। उनको श्रद्धालुओं के घर ऐसे सवाल की उम्मीद न थी। फिर भी बोले..
" हाँ, नास्तिकों को भी। लेकिन.."
"लेकिन क्या बाबाजी?"
"बेटा! सच तो यह है कि नास्तिक भटके हुए इंसान हैं।"
लल्लन - "ईश्वर की मर्जी से?"
बाबाजी - "नहीं।"
"...तो क्या उनपर ईश्वर की मर्जी नहीं चलती?"
"ऐसा न कहो बेटा।"
लल्लन - "...जिनको ईश्वर ने ही बनाया और उन्होंने ईश्वर को ही खारिज कर दिया। इससे क्या समझा जाय?"
बाबाजी लल्लन के पिता को देखते हुए..
"आपका बच्चा नादान है। ईश्वर से अनजान है।"
उधर पिताजी लल्लन को भला-बुरा कहने लगे।
"तुम सुधरने वाले नहीं हो।"
ईधर बाबाजी..
लल्लन को बिना आशीर्वाद दिये आराम से निकल लिये।
– शेषनाथ वर्णवाल
ईश्वर कब तक ईश्वर माना जाता रहेगा?
जब तक हमारी प्रार्थनाओं-मन्नतों को सुन कर
अपने कान पर हाथ रख
हमें साफ शब्दों में मना नहीं कर देता कि
चलो हटो जाओ
ये तो संभव ही नहीं.
जब तक हमारी मन मर्जी मुताबिक बनाए
हमारी अपनी ही पसंद के प्रसादों को
भोग लगाने से मना नहीं कर देता कि
मुझे इसका स्वाद कतई नहीं भाता.
जब तक हमारी पहनाई
रेशमी जरीदार भड़कीली पोशाकों को
पहनने से मना नहीं कर देता कि
इस पोशाक का रंग और कपड़े की क्वालिटी
ठीक नहीं है.
जब तक डीजे पर कर्कश स्वर में
बजाए जा रहे कानफोड़ू भजनों को यह कहकर
बंद नहीं करवा देता कि
ये क्या गा रहे हो मेरे बारे में
कुछ भी तू तड़ाक-उल्टा सीधा
भजनो के बोल, तुक, सुर और संगीत का तो
ख्याल रखा करो
और हां, आवाज़ ज़रा धीमी रखा करो,
मैं बहरा नहीं हूं!
कभी कभी लगता है कि जिस प्रकार हम ईश्वर के समक्ष खड़े होकर साफ साफ अपनी बात रखते हैं तो ईश्वर को भी अपना पक्ष रखने का अधिकार तो होना ही चाहिए न.
उसे थोड़ा बहुत निर्दयी और निष्ठुर भी होना चाहिए.
अब भला इतना भी क्या सीधा-साधा और भोला-भाला होना कि इंसान उसके सिर पर चढ़कर अपनी मनमर्जियां करता रहे और वो मौन ही रहे.
लगता है जैसे हम इंसान ईश्वर को केवल अपने खेल की वस्तु बनाए बैठे हैं!
हे ईश्वर, इंसान की मनमर्जियों के खिलाफ कभी तो बोलो!
सच कहूं तो ऐसा लगता है जैसे हमने अपनी खुद की सारी मनमर्जियां और अपनी उचित-अनुचित हर माँग पूरी करवाने के लिए तमाम तरह के उल्टे सीधे जतन करके ईश्वर के जीवन में उत्पात मचा रखा है.
— सुजाता गुप्ता
जब तक हमारी प्रार्थनाओं-मन्नतों को सुन कर
अपने कान पर हाथ रख
हमें साफ शब्दों में मना नहीं कर देता कि
चलो हटो जाओ
ये तो संभव ही नहीं.
जब तक हमारी मन मर्जी मुताबिक बनाए
हमारी अपनी ही पसंद के प्रसादों को
भोग लगाने से मना नहीं कर देता कि
मुझे इसका स्वाद कतई नहीं भाता.
जब तक हमारी पहनाई
रेशमी जरीदार भड़कीली पोशाकों को
पहनने से मना नहीं कर देता कि
इस पोशाक का रंग और कपड़े की क्वालिटी
ठीक नहीं है.
जब तक डीजे पर कर्कश स्वर में
बजाए जा रहे कानफोड़ू भजनों को यह कहकर
बंद नहीं करवा देता कि
ये क्या गा रहे हो मेरे बारे में
कुछ भी तू तड़ाक-उल्टा सीधा
भजनो के बोल, तुक, सुर और संगीत का तो
ख्याल रखा करो
और हां, आवाज़ ज़रा धीमी रखा करो,
मैं बहरा नहीं हूं!
कभी कभी लगता है कि जिस प्रकार हम ईश्वर के समक्ष खड़े होकर साफ साफ अपनी बात रखते हैं तो ईश्वर को भी अपना पक्ष रखने का अधिकार तो होना ही चाहिए न.
उसे थोड़ा बहुत निर्दयी और निष्ठुर भी होना चाहिए.
अब भला इतना भी क्या सीधा-साधा और भोला-भाला होना कि इंसान उसके सिर पर चढ़कर अपनी मनमर्जियां करता रहे और वो मौन ही रहे.
लगता है जैसे हम इंसान ईश्वर को केवल अपने खेल की वस्तु बनाए बैठे हैं!
हे ईश्वर, इंसान की मनमर्जियों के खिलाफ कभी तो बोलो!
सच कहूं तो ऐसा लगता है जैसे हमने अपनी खुद की सारी मनमर्जियां और अपनी उचित-अनुचित हर माँग पूरी करवाने के लिए तमाम तरह के उल्टे सीधे जतन करके ईश्वर के जीवन में उत्पात मचा रखा है.
— सुजाता गुप्ता
आजकल लव गुनाह है। हेट एक्सेप्टेड है।
अगर आपने कहा आई हेट मुस्लिम्स, तो कोई बात नहीं। पर अगर आपने कहा कि आई लव मुस्लिम्स, तो आपकी खैर नहीं।
मुझे मुस्लिम्स, हिन्दू, सिख, ईसाई, बुद्धिस्ट आदि सभी धर्म के लोग पसंद हैं। वो इसलिए कि सभी धर्मों को मानने वाले लोग सबसे पहले इंसान हैं।
हालांकि मुझे कोई धर्म पसंद नहीं है क्योंकि इसी की परिधि में हेट, हत्या, शोषण, अंधविश्वास और गंदी राजनीति पलती है।
खुद को धार्मिक कहने वाले लोग लाख दावा करें कि धर्म प्रेम और शांति का मार्ग है, सच तो उल्टा ही दृष्टिगत होता है।
— शेषनाथ वर्णवाल
अगर आपने कहा आई हेट मुस्लिम्स, तो कोई बात नहीं। पर अगर आपने कहा कि आई लव मुस्लिम्स, तो आपकी खैर नहीं।
मुझे मुस्लिम्स, हिन्दू, सिख, ईसाई, बुद्धिस्ट आदि सभी धर्म के लोग पसंद हैं। वो इसलिए कि सभी धर्मों को मानने वाले लोग सबसे पहले इंसान हैं।
हालांकि मुझे कोई धर्म पसंद नहीं है क्योंकि इसी की परिधि में हेट, हत्या, शोषण, अंधविश्वास और गंदी राजनीति पलती है।
खुद को धार्मिक कहने वाले लोग लाख दावा करें कि धर्म प्रेम और शांति का मार्ग है, सच तो उल्टा ही दृष्टिगत होता है।
— शेषनाथ वर्णवाल
मैरिटल रेप!
किसी की पत्नी, बहन, बेटी, माँ, प्रेमिका या किसी भी रिश्ते से बहुत पहले महिला एक स्वतंत्र पहचान के साथ एक नागरिक होती है! उसके शरीर और जीवन पर एकमात्र अधिकार उसका होता है! भाई-पति-बाप-बेटा-प्रेमी का नहीं! अगर तुम किसी महिला को सिर्फ़ रिश्तों में ही रखकर पहचानते हो तो समझो कि तुम पितृसत्ता के वाहक हो!
इसलिए किसी महिला की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ या उसकी सहमति के बिना उसके साथ किया गया ज़बरन सेक्स, रेप है! चाहे ये ज़बरदस्ती उसका पति करे या कोई भी व्यक्ति! शादी को पवित्र बंधन कहकर, संस्कृति या परंपरा के बहाने अथवा परिवार के बिखरने की दुहाई देकर ऐसे ज़बरन सेक्स को बलात्कार नहीं मानने का तर्क एक शातिर मर्दवादी, पितृसत्तात्मक सोच है!
अव्वल तो शादी की संस्था कोई पवित्र बंधन-वंधन नहीं होती फिर भी अगर तेरे लिए है तो उसे दमघोंटू क्यों बना रहा है रे घोंचू? इसके टूटने का कारण तेरे द्वारा किया गया रेप है, तेरी पत्नी द्वारा इसके ख़िलाफ़ मुँह खोलना नहीं! तो मत बन तू कारण!
पत्नी के साथ ज़बरन सेक्स मत कर! याद रख शादी सेक्स का लाइसेंस नहीं! सेक्स हर बार सहमति और मर्ज़ी से ही होना चाहिए! उसने कल सेक्स किया था लेकिन आज उसका मन नहीं है और वो मना करे तो मान जा! वो कॉन्डम पहनने को बोले तो पहन ले! उसकी 'ना में भी हाँ है' वाली घटिया सोच से बाहर निकल! स्पष्ट 'हाँ' समझने की सलाहियत और स्पष्ट "ना" को गरिमापूर्ण तरीक़े से मानना सीख!
अब ये मत कहना कि तुझे सहमति और मर्ज़ी समझ में नहीं आती! बात कर पत्नी से, संवाद सुधार! तब भी नहीं आती तो तू भारी बकलोल होने के साथ-साथ पत्नी को ज़रा भी न समझने वाला चमनबहार है! इसका सीधा सा मतलब है कि तू उसके शरीर पर अपना हक़ समझता है, उसको अपनी प्रॉपर्टी समझता है, उसके हाँ या ना की तुझे कोई परवाह नहीं!
बाकी तेरे ये सवाल कि मैरिटल रेप को मान्यता देने के बाद कैसे साबित होगा कि ये सेक्स था या बलात्कार? ये कि झूठे केस होंगे, डिवोर्स बढ़ेंगे, परिवार टूटेंगे, रिश्तों की पवित्रता नष्ट होगी ................
इन सबका एक ही जवाब है कि तू सुधर जा! पत्नी के शरीर पर कोई वैधानिक अधिकार जताने से बाज आ! अगर तुझे अपने पार्टनर की सहमति और मर्ज़ी समझ नहीं आती तो ख़ुद की समझ दुरुस्त करने पर काम कर! वर्ना परिवार टूटने, रिश्ते की तथाकथित "पवित्रता" नष्ट होने और डिवोर्स होने की वजह तू होगा, मैरिटल रेप को मान्यता देना नहीं!
— ताराशंकर
किसी की पत्नी, बहन, बेटी, माँ, प्रेमिका या किसी भी रिश्ते से बहुत पहले महिला एक स्वतंत्र पहचान के साथ एक नागरिक होती है! उसके शरीर और जीवन पर एकमात्र अधिकार उसका होता है! भाई-पति-बाप-बेटा-प्रेमी का नहीं! अगर तुम किसी महिला को सिर्फ़ रिश्तों में ही रखकर पहचानते हो तो समझो कि तुम पितृसत्ता के वाहक हो!
इसलिए किसी महिला की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ या उसकी सहमति के बिना उसके साथ किया गया ज़बरन सेक्स, रेप है! चाहे ये ज़बरदस्ती उसका पति करे या कोई भी व्यक्ति! शादी को पवित्र बंधन कहकर, संस्कृति या परंपरा के बहाने अथवा परिवार के बिखरने की दुहाई देकर ऐसे ज़बरन सेक्स को बलात्कार नहीं मानने का तर्क एक शातिर मर्दवादी, पितृसत्तात्मक सोच है!
अव्वल तो शादी की संस्था कोई पवित्र बंधन-वंधन नहीं होती फिर भी अगर तेरे लिए है तो उसे दमघोंटू क्यों बना रहा है रे घोंचू? इसके टूटने का कारण तेरे द्वारा किया गया रेप है, तेरी पत्नी द्वारा इसके ख़िलाफ़ मुँह खोलना नहीं! तो मत बन तू कारण!
पत्नी के साथ ज़बरन सेक्स मत कर! याद रख शादी सेक्स का लाइसेंस नहीं! सेक्स हर बार सहमति और मर्ज़ी से ही होना चाहिए! उसने कल सेक्स किया था लेकिन आज उसका मन नहीं है और वो मना करे तो मान जा! वो कॉन्डम पहनने को बोले तो पहन ले! उसकी 'ना में भी हाँ है' वाली घटिया सोच से बाहर निकल! स्पष्ट 'हाँ' समझने की सलाहियत और स्पष्ट "ना" को गरिमापूर्ण तरीक़े से मानना सीख!
अब ये मत कहना कि तुझे सहमति और मर्ज़ी समझ में नहीं आती! बात कर पत्नी से, संवाद सुधार! तब भी नहीं आती तो तू भारी बकलोल होने के साथ-साथ पत्नी को ज़रा भी न समझने वाला चमनबहार है! इसका सीधा सा मतलब है कि तू उसके शरीर पर अपना हक़ समझता है, उसको अपनी प्रॉपर्टी समझता है, उसके हाँ या ना की तुझे कोई परवाह नहीं!
बाकी तेरे ये सवाल कि मैरिटल रेप को मान्यता देने के बाद कैसे साबित होगा कि ये सेक्स था या बलात्कार? ये कि झूठे केस होंगे, डिवोर्स बढ़ेंगे, परिवार टूटेंगे, रिश्तों की पवित्रता नष्ट होगी ................
इन सबका एक ही जवाब है कि तू सुधर जा! पत्नी के शरीर पर कोई वैधानिक अधिकार जताने से बाज आ! अगर तुझे अपने पार्टनर की सहमति और मर्ज़ी समझ नहीं आती तो ख़ुद की समझ दुरुस्त करने पर काम कर! वर्ना परिवार टूटने, रिश्ते की तथाकथित "पवित्रता" नष्ट होने और डिवोर्स होने की वजह तू होगा, मैरिटल रेप को मान्यता देना नहीं!
— ताराशंकर
आस्था बनाम विश्वास
–
आस्था या विश्वास को मानव का एक प्रकृतिक गुण या प्रवृति कह सकते हैं। यह सत्य है।
पर जहां पर यह आस्था या विश्वास अंधानुकरण का वश में हो जाता है तब मन व विवेक को काबू कर लेता वहां वह एक काठपुतली कि तरह दूसरे की निर्देश पर संचालित होता रहता है और इंसान मानशिक स्तर पर गुलाम बन जाता है ।
आइए देखते हैं इस अंधआस्था का दुष्परिणाम :-
आस्था - एक शब्द जो इंसान की सोचने की शक्ति खत्म कर देता है।
आस्था-अंधविश्वास की जननी है।
आस्था- मनुवादियों के शोषण का अस्त्र है।
आस्था - भारत को 2000 वर्षों तक गुलाम बना रखा था ।
आस्था - पशु बलि व नर बलि करवाता है।
आस्था -महिलाओं को मानशिक व शारीरिक शोषण का कारण है ,
आस्था - काठ पत्थर को पूजने को विवश करता है ।
आस्था - पत्थर के ऊपर दूध डलवाता है।
आस्था - होम यज्ञ हवन में अमूल्य अनाज, घी जला कर नष्ट करवाता है।
आस्था - इंसान को गो मूत्र पीने को विवश करता है।
आस्था - लोगों को भीरू व पलायनवादी बनाता है।
आस्था - लोगों को भाग्यवादी बना कर कर्मभीरु बनाता है ।
इसीलिए हमें अगर प्रगति के पथ पर चलना है तो अंधविश्वास को त्यागना होगा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना होगा ।
जय विज्ञान
— ममता नायक
–
आस्था या विश्वास को मानव का एक प्रकृतिक गुण या प्रवृति कह सकते हैं। यह सत्य है।
पर जहां पर यह आस्था या विश्वास अंधानुकरण का वश में हो जाता है तब मन व विवेक को काबू कर लेता वहां वह एक काठपुतली कि तरह दूसरे की निर्देश पर संचालित होता रहता है और इंसान मानशिक स्तर पर गुलाम बन जाता है ।
आइए देखते हैं इस अंधआस्था का दुष्परिणाम :-
आस्था - एक शब्द जो इंसान की सोचने की शक्ति खत्म कर देता है।
आस्था-अंधविश्वास की जननी है।
आस्था- मनुवादियों के शोषण का अस्त्र है।
आस्था - भारत को 2000 वर्षों तक गुलाम बना रखा था ।
आस्था - पशु बलि व नर बलि करवाता है।
आस्था -महिलाओं को मानशिक व शारीरिक शोषण का कारण है ,
आस्था - काठ पत्थर को पूजने को विवश करता है ।
आस्था - पत्थर के ऊपर दूध डलवाता है।
आस्था - होम यज्ञ हवन में अमूल्य अनाज, घी जला कर नष्ट करवाता है।
आस्था - इंसान को गो मूत्र पीने को विवश करता है।
आस्था - लोगों को भीरू व पलायनवादी बनाता है।
आस्था - लोगों को भाग्यवादी बना कर कर्मभीरु बनाता है ।
इसीलिए हमें अगर प्रगति के पथ पर चलना है तो अंधविश्वास को त्यागना होगा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना होगा ।
जय विज्ञान
— ममता नायक
शहर में कितने भाड़े के घर बदले. मकान मालिक कभी कोई अधिकारी होता, कोई शिक्षक होता, कोई सेना में होता तो कोई सेवानिवृत सरकारी कर्मचारी. सबको देखा. ऊंचे-ऊंचे घर देखे, सभ्य होते आदिवासियों को देखा. धर्म और ईश्वर के नाम पर बने संगठन इतने मजबूत होते कि पढ़े-लिखे धनाढ्य आदिवासियों को भी उनसे डरते देखा. अपना विवेक धर्म के नाम पर चलते संगठनों के हाथों ही वे गिरवी रख आते हैं. कुछ को तो बहुत भ्रष्ट पाया. यह अलग बात है कि कुछ के घर से दिन-रात प्रार्थना की आवाज़ आती रहती थी. कुछ तो घर देने के बाद हमेशा संदेह करते रहे इसलिए कि मेरे कमरे में ईश्वर की कोई मूर्ति , कोई तस्वीर उन्हें नहीं दिखी.
मैंने ऐसा शहर एक दिन छोड़ दिया. शहर छोड़ने के बाद झारखंड-छत्तीसगढ़ की सीमा पर स्थित एक गांव में एक कमरा ले लिया. पहली मुलाकात में ही मकान की मालकिन की हंसी में निश्छलता देखी.
एक दिन लंबी यात्रा से लौटी तो देखा वे मेरे कमरे में गर्म पानी लेकर आई हैं. यह चकित करने वाली बात थी. क्योंकि इतने सालों में यह पहली बार हुआ था. वे मुझे नीचे लेकर गई और उन्होंने चाय पिलाई. अब अक्सर हम साथ चाय पीते हैं. धर्म, राजनीति, मानवीय मूल्यों पर हमेशा चर्चा होती है. वे रविवार को पूजा - स्थल जाती हैं. मुझ पर कभी कोई दबाव नहीं डालतीं.
उनकी अनुपस्थिति में मैं घर में उनके कुत्ते को समय पर खाना खिला देती हूं. उन्होंने मेरे कमरे में ईश्वर की कोई तस्वीर नहीं होने पर कभी कोई शिकायत नहीं की.
उल्टे उन्हें किताबों से भरे मेरे कमरे में चूहे के घुस जाने की बहुत चिंता रहती है. " तुम्हारी किताबें न ख़राब हो जाए इस बात से डरती हूं" कहती हैं. एक चाबी मैंने उन्हें दे रखी है. इसलिए कि मेरी अनुपस्थिति में कमरा देख लें कि कहीं कोई चूहा तो नहीं घुसा है. और इत्मीनान भी रहें.
कभी-कभी सोचती हूं वे इस तरह क्यों हैं? क्या शहर से दूर गांव में लोगों के साथ मिलकर रहने की वजह से यह है ? या उन्होंने अपना विवेक, भावनाएं और जीवन मूल्य किसी धार्मिक संगठन के हाथों गिरवी रखने से खुद को बचा लिया है?
आज " ईश्वर और बाज़ार " कविता संग्रह मिलते ही उसकी पहली कॉपी उन्हीं को सप्रेम भेंट किया. वे कहती हैं कि बहुत से अनुभवों से वे वंचित थी और उनके जीवन में जो कभी नहीं घटा उसे समझने में असमर्थ भी लेकिन इन दिनों हम और व्यापक हो रहीं हैं. सच्चे अर्थों में वे अब मेरे कमरे की मालकिन नहीं रह गईं हैं. वे मेरी मित्र हो गईं हैं. और वास्तव में अब जाकर मुझे कोई घर मिला है. घर, जिसके भीतर हम ही नहीं रहते जो हमारे भीतर भी रहता है.
— जसिंता केरकेट्टा
मैंने ऐसा शहर एक दिन छोड़ दिया. शहर छोड़ने के बाद झारखंड-छत्तीसगढ़ की सीमा पर स्थित एक गांव में एक कमरा ले लिया. पहली मुलाकात में ही मकान की मालकिन की हंसी में निश्छलता देखी.
एक दिन लंबी यात्रा से लौटी तो देखा वे मेरे कमरे में गर्म पानी लेकर आई हैं. यह चकित करने वाली बात थी. क्योंकि इतने सालों में यह पहली बार हुआ था. वे मुझे नीचे लेकर गई और उन्होंने चाय पिलाई. अब अक्सर हम साथ चाय पीते हैं. धर्म, राजनीति, मानवीय मूल्यों पर हमेशा चर्चा होती है. वे रविवार को पूजा - स्थल जाती हैं. मुझ पर कभी कोई दबाव नहीं डालतीं.
उनकी अनुपस्थिति में मैं घर में उनके कुत्ते को समय पर खाना खिला देती हूं. उन्होंने मेरे कमरे में ईश्वर की कोई तस्वीर नहीं होने पर कभी कोई शिकायत नहीं की.
उल्टे उन्हें किताबों से भरे मेरे कमरे में चूहे के घुस जाने की बहुत चिंता रहती है. " तुम्हारी किताबें न ख़राब हो जाए इस बात से डरती हूं" कहती हैं. एक चाबी मैंने उन्हें दे रखी है. इसलिए कि मेरी अनुपस्थिति में कमरा देख लें कि कहीं कोई चूहा तो नहीं घुसा है. और इत्मीनान भी रहें.
कभी-कभी सोचती हूं वे इस तरह क्यों हैं? क्या शहर से दूर गांव में लोगों के साथ मिलकर रहने की वजह से यह है ? या उन्होंने अपना विवेक, भावनाएं और जीवन मूल्य किसी धार्मिक संगठन के हाथों गिरवी रखने से खुद को बचा लिया है?
आज " ईश्वर और बाज़ार " कविता संग्रह मिलते ही उसकी पहली कॉपी उन्हीं को सप्रेम भेंट किया. वे कहती हैं कि बहुत से अनुभवों से वे वंचित थी और उनके जीवन में जो कभी नहीं घटा उसे समझने में असमर्थ भी लेकिन इन दिनों हम और व्यापक हो रहीं हैं. सच्चे अर्थों में वे अब मेरे कमरे की मालकिन नहीं रह गईं हैं. वे मेरी मित्र हो गईं हैं. और वास्तव में अब जाकर मुझे कोई घर मिला है. घर, जिसके भीतर हम ही नहीं रहते जो हमारे भीतर भी रहता है.
— जसिंता केरकेट्टा
जो भीड़ अंधविश्वास की तरफ चलती हो
उससे अच्छा तो अकेला चलना है
जो भीड़ काल्पनिक कहानियों को सच्च समझती हो
उससे अच्छा तो नास्तिक बनना है
जो भीड़ आज भी ये आशा करती है
की मन्दिर ,मस्जिद , चर्च जाने से
पैसे में बृद्धि होती है
वो भिखारियों की ज़िन्दगी देख सकती है
जो भीड़ ये आशा करती है
की युद्ध में
कोई शक्ति हमारी रक्षा करेगी
वो इतिहास पढ़ सकती है
की तुम्हारे मन्दिरों को तोड़कर
तुम पर बलात्कार करकें
कोई ऊपर वाली सक्ति तुम्हारी
रक्षा ना कर पाई थी
जो स्त्रियां इस आशा में है
की देवी चण्डी दुष्टों का
नाश करनें खुद आएगी
वो उन स्त्रियों से पूछ सकती है
जिनका बलात्कार हुहा है ।
जो आज भी इस आशा में है
की तंत्र मंत्र से कुछ हाशिल होता है
वो उनकी ज़िन्दगी देख सकतें है
जब तन्त्र मन्त्र करनें वाले ख़ुद
बीमार होने पर अस्पताल की तरफ
रुख करतें है
पूजारी
मोलवी
पादरी
सन्त
खुद बीमार पढ़ने पर
विज्ञान का सहारा लेंते है
वैक्सीन लगाते है
ऑपरेशन से
अपनी ज़िन्दगी को बचाते है
फिर भी भक्त
कहाँ समझतें है ।।।
— सुनील प्रेम
उससे अच्छा तो अकेला चलना है
जो भीड़ काल्पनिक कहानियों को सच्च समझती हो
उससे अच्छा तो नास्तिक बनना है
जो भीड़ आज भी ये आशा करती है
की मन्दिर ,मस्जिद , चर्च जाने से
पैसे में बृद्धि होती है
वो भिखारियों की ज़िन्दगी देख सकती है
जो भीड़ ये आशा करती है
की युद्ध में
कोई शक्ति हमारी रक्षा करेगी
वो इतिहास पढ़ सकती है
की तुम्हारे मन्दिरों को तोड़कर
तुम पर बलात्कार करकें
कोई ऊपर वाली सक्ति तुम्हारी
रक्षा ना कर पाई थी
जो स्त्रियां इस आशा में है
की देवी चण्डी दुष्टों का
नाश करनें खुद आएगी
वो उन स्त्रियों से पूछ सकती है
जिनका बलात्कार हुहा है ।
जो आज भी इस आशा में है
की तंत्र मंत्र से कुछ हाशिल होता है
वो उनकी ज़िन्दगी देख सकतें है
जब तन्त्र मन्त्र करनें वाले ख़ुद
बीमार होने पर अस्पताल की तरफ
रुख करतें है
पूजारी
मोलवी
पादरी
सन्त
खुद बीमार पढ़ने पर
विज्ञान का सहारा लेंते है
वैक्सीन लगाते है
ऑपरेशन से
अपनी ज़िन्दगी को बचाते है
फिर भी भक्त
कहाँ समझतें है ।।।
— सुनील प्रेम
कोई भी समय आपको सीखाने वाला, आगे बढ़ाने वाला नहीं होगा जब तक कि....
आप उसको सीखने, आगे बढ़ने का समय नहीं मानते हैं,
और सीखना, आगे बढ़ना शुरू नहीं करते हैं।
–हरीश मानव 'सत्यदर्शी'
आप उसको सीखने, आगे बढ़ने का समय नहीं मानते हैं,
और सीखना, आगे बढ़ना शुरू नहीं करते हैं।
–हरीश मानव 'सत्यदर्शी'
हमारे नजरिये में बदलाव से क्या होता है ?
—
नजरिया (Perspective) हमारे वैचारिक ग्रोथ या बढ़ने का सबसे बेस ( आधार ) है. हर किसी चीज को हम एक नजरिये से देखते है और अक्सर वो नजरिया हमारे इर्द गिर्द के लोग स्थापित किये होते है. हम फिर उसी जिद में भी अड़े रहते है कि यही एक नजरिया है जो सही है चाहे वो विचार जाति , लिंग, समाज, राजनीति या रिश्ता जैसे किसी भी चीज को लेकर हो।
कई बार परिवर्तन होता भी है हमारे अंदर तो वो पुराने नजरिये फिर से वही धांस लेते है जहा से हम निकलने की कोशिश कर रहे होते है। एक नजरिये से दुसरे नजरिये के बीच के फासले को समझ पाने के कारण ही दुनिया भर में बड़का बड़का अविष्कार हुए है और बदलाव हुए है, जो अड़े नही थे अपने जिद्द पे।
इस फोटो को भी कई नजरिये से देखा जा सकता है। या तो पुरुष एक महिला को हाथ दे रहा है या एक उसका उल्टा। एक लम्बे वक्त के बाद मुझे महसूस हुआ और ये सीखा, कि नजरिया कितना महत्वपूर्ण है। अगर इस बेस को हम ना सीख पाए तो हमारे अंदर कुछ भी परिवर्तन संभव नही होता है. वैसे सम्हालने का काम मेरे अनुभव में हमेशा लड़कियां ही करती है, नाम भले " पुरुष" का है हर जगह। इस फोटो में भी वही मुझे पथ्थर चढ़ने के लिए सहारा दे रही है।
पुरुषत्व को लेकर हम सब पुरुषो के नजरिये में बदलाव बहुत जरुरी है. इसे एक नए सिरे से गढ़ने का कोशिश हमको करते रहना होगा !
~ मनोज
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नजरिया (Perspective) हमारे वैचारिक ग्रोथ या बढ़ने का सबसे बेस ( आधार ) है. हर किसी चीज को हम एक नजरिये से देखते है और अक्सर वो नजरिया हमारे इर्द गिर्द के लोग स्थापित किये होते है. हम फिर उसी जिद में भी अड़े रहते है कि यही एक नजरिया है जो सही है चाहे वो विचार जाति , लिंग, समाज, राजनीति या रिश्ता जैसे किसी भी चीज को लेकर हो।
कई बार परिवर्तन होता भी है हमारे अंदर तो वो पुराने नजरिये फिर से वही धांस लेते है जहा से हम निकलने की कोशिश कर रहे होते है। एक नजरिये से दुसरे नजरिये के बीच के फासले को समझ पाने के कारण ही दुनिया भर में बड़का बड़का अविष्कार हुए है और बदलाव हुए है, जो अड़े नही थे अपने जिद्द पे।
इस फोटो को भी कई नजरिये से देखा जा सकता है। या तो पुरुष एक महिला को हाथ दे रहा है या एक उसका उल्टा। एक लम्बे वक्त के बाद मुझे महसूस हुआ और ये सीखा, कि नजरिया कितना महत्वपूर्ण है। अगर इस बेस को हम ना सीख पाए तो हमारे अंदर कुछ भी परिवर्तन संभव नही होता है. वैसे सम्हालने का काम मेरे अनुभव में हमेशा लड़कियां ही करती है, नाम भले " पुरुष" का है हर जगह। इस फोटो में भी वही मुझे पथ्थर चढ़ने के लिए सहारा दे रही है।
पुरुषत्व को लेकर हम सब पुरुषो के नजरिये में बदलाव बहुत जरुरी है. इसे एक नए सिरे से गढ़ने का कोशिश हमको करते रहना होगा !
~ मनोज