Tarksheel
470 subscribers
388 photos
2 videos
58 links
तर्कशील समाज के निर्माण के लिए।
Download Telegram
कोई भी समय आपको सीखाने वाला, आगे बढ़ाने वाला नहीं होगा जब तक कि....
आप उसको सीखने, आगे बढ़ने का समय नहीं मानते हैं,
और सीखना, आगे बढ़ना शुरू नहीं करते हैं।

–हरीश मानव 'सत्यदर्शी'
हमारे नजरिये में बदलाव से क्या होता है ?

नजरिया (Perspective) हमारे वैचारिक ग्रोथ या बढ़ने का सबसे बेस ( आधार ) है. हर किसी चीज को हम एक नजरिये से देखते है और अक्सर वो नजरिया हमारे इर्द गिर्द के लोग स्थापित किये होते है. हम फिर उसी जिद में भी अड़े रहते है कि यही एक नजरिया है जो सही है चाहे वो विचार जाति , लिंग, समाज, राजनीति या रिश्ता जैसे किसी भी चीज को लेकर हो।

कई बार परिवर्तन होता भी है हमारे अंदर तो वो पुराने नजरिये फिर से वही धांस लेते है जहा से हम निकलने की कोशिश कर रहे होते है। एक नजरिये से दुसरे नजरिये के बीच के फासले को समझ पाने के कारण ही दुनिया भर में बड़का बड़का अविष्कार हुए है और बदलाव हुए है, जो अड़े नही थे अपने जिद्द पे।

इस फोटो को भी कई नजरिये से देखा जा सकता है। या तो पुरुष एक महिला को हाथ दे रहा है या एक उसका उल्टा। एक लम्बे वक्त के बाद मुझे महसूस हुआ और ये सीखा, कि नजरिया कितना महत्वपूर्ण है। अगर इस बेस को हम ना सीख पाए तो हमारे अंदर कुछ भी परिवर्तन संभव नही होता है. वैसे सम्हालने का काम मेरे अनुभव में हमेशा लड़कियां ही करती है, नाम भले " पुरुष" का है हर जगह। इस फोटो में भी वही मुझे पथ्थर चढ़ने के लिए सहारा दे रही है।

पुरुषत्व को लेकर हम सब पुरुषो के नजरिये में बदलाव बहुत जरुरी है. इसे एक नए सिरे से गढ़ने का कोशिश हमको करते रहना होगा !

~ मनोज
"चाचा ये बकरे कहाँ ले जा रहे हो?' मैंने पूछा।
"बेटा भैरों को चढ़ाना है" उन्होंने कहा।
"मतलब ?"
उन्होंने कहा,
"देवता को नहीं चढ़ायेंगे, क्या पता नाराज़ हो जायेगा।"

पूछा मैंने, "कितने में लिया ?"
"नौ हज़ार रुपया में"
"रिश्तेदार था नहीं तो बारह हज़ार लगता" फिर कहा।

मैंने कहा, "क्या जरुरत है चढ़ाने क़ी ?"
उसने कहा, "बाप दादा के ज़माने से चढ़ा रहें है। क्या पता न चढ़ाने से कोई घर में अनहोनी न हो जाये।"

आज भी भारत में बहुसंख्य लोग इसी चाचा की तरह ही सोच पाते हैं। गरीबी और लाचारी उन्हें पढ़ने सोचने नहीं देती। सत्ता चाहती भी नहीं कि लोग इनसे बाहर निकलें।

पता नहीं, भारत में कितनी और पीढियां फटेहाल जिंदगी जीते हुए भी अंधश्रद्धा और ब्राह्मणवाद का शिकार बनने से कब बचेंगी ?

तर्क, विज्ञान अभी भी उनसे कोसों दूर है और बाप दादा के नाम पर गलत परम्परायें बदस्तूर जारी हैं।

— शेषनाथ वर्णवाल
Forwarded from Vintage Books
प्रतिभाशाली स्त्री

बहुत कठिन होता है
स्त्री का प्रतिभाशाली होना,
अपनी आभा को
अपनी ही परतों में छिपाकर
द्युतिहीन होना।

उसकी लकीर काटने की
चलती रहती हैं कुचेष्टाएँ,
बात-बात पर नीचा साबित करने की
होती हैं कुमन्त्रणाएं,
उसकी ज़रा-सी भी चमक
आँखों में चुभती है,
नुकीले शब्द बाणों से
अक्सर उसकी सांसें घुटती हैं।
आसान नहीं होता
श्रापित अहिल्या के लिए
पाषाण का बोझ ढोना,
बहुत कठिन होता है
श्रेष्ठ होने के दम्भ में जकड़े
लोगों के साथ मरना और जीना।
बहुत कठिन होता है,
स्त्री का प्रतिभाशाली होना।

छिपाती हैं अपनी कथाएं
छिपा कर रखती है अपनी व्यथाएँ,
छिप-छिप कर लिखती है
छिप-छिप कर पढ़ती है
फिर भी प्रतिभा
कहीं न कहीं से झलक उठती है...
चाल में,
काम में,
कथन में,
मंथन में...
और उग आती है उनकी विद्रूपताएं,
'खुद को क्या समझती है' से लेकर
'हमें मत समझा' के दंश को पीना,
बहुत कठिन होता है
अदृश्य खंजरों के बीच
तिरस्कार के कटघरे में खड़े होना।
बहुत कठिन होता है
स्त्री का प्रतिभाशाली होना।

पुरुष उसे बार बार तोड़ता है,
उसकी कहानी के पात्रों को
अपने हिसाब से जोड़ता है,
खींचता है लकीरें
परिभाषित करता है सीमाएं,
और उसकी मर्यादा की
मांगता है परीक्षाएं,
आसान नहीं होता
दूसरों की विफलताओं का
खुद पर लगा लाँछन ढोना,
बहुत कठिन होता है
राजा जनक की 'वैदेही' होना।
बहुत कठिन होता है
स्त्री का प्रतिभाशाली होना।

– नलिनी अग्रवाल
यह पूरी सृष्टि तीन ही चीजों से बनी है- स्पेस मैटर और टाइम तीनों में कॉमन यह है कि ये तीनों unconscious यानी चेतना विहीन तत्व हैं हम भी स्पेस मैटर और टाइम का हिस्सा हैं लेकिन हममे चेतना यानी consciousness है. इसलिए हम इस सृष्टि के चेतनाशील तत्व हैं.

धरती चांद सितारे धूमकेतु आकाशगंगाये और हमारे ज्ञात यूनिवर्स में मौजूद जितने भी तत्व हैं सभी हमारे जैसे ही गतिशील हैं लेकिन उनमें चेतना नही है.इसलिए ये सभी सृस्टि के जड़ तत्व हैं.

यह हमारा सूरज है गतिशील है यह कभी पैदा हुआ इस समय यह अपनी जवानी की दहलीज पर है और एक दिन वह समाप्त हो जायेगा.

इसी सूरज का चक्कर लगाने वाली हमारी गतिशील मगर जड़ पृथ्वी पर विचरने वाला यह एक मामूली जीव है सूरज की तरह यह जीव भी गतिशील है यह भी कभी पैदा हुआ और इसकी भी मृत्यु निश्चित है दोनो में फर्क सिर्फ चेतना का है इस मामूली चींटी में चेतना है और यह विशाल सूरज चेतनविहीन है.

अब सवाल यह है कि चेतना है क्या ? वह क्या चीज है जिसे हम चेतना कहते हैं चेतना आती कहाँ से है ?

चेतना या कॉन्सेसनेस ही जीवन या जीवित होने का आधार है जिसमे यह नही वह जड़ है जिसमे यह है वह चेतन है. जीवन की जितनी भी इकाई इस सृष्टि में मौजूद है उसमे यही consciousness यानी चेतना होती है मगर यह चेतना या कॉन्सेसनेस है क्या ? आइये पहले इसको समझते हैं.

विज्ञान कहता है कि unconscious से conscious बना इसे समझने के लिए समय मे बहुत पीछे जाना होगा करीब 3 अरब 80 करोड़ साल पहले समुद्र की गहराइयों में वह अभिक्रिया शुरू हुई जिससे बड़ी मात्रा में अमिनो एसिड नामक द्रव्य बना करोड़ों वर्षों के बाद इसी द्रव्य से बना प्रोटीन प्रोटीन से बना डी इन ए मोलूक्युल.

इस पूरी प्रक्रिया में करोड़ो साल लगे करीब 3 अरब साल पहले तक धरती पर कोई भी चेतनायुक्त जीव नही था डीएनए मोलूक्युल से बने शुरुआती मिक्रोर्गेनिज्म. इन मिक्रोर्गेनिज्म को चेतनशीलता का पहला स्टेप कहा जा सकता है जीवन के इस आरंभिक स्टेप से आगे बढ़ते हुए बेसिक लाइफ स्ट्रक्चर की शुरुआत होने में एक अरब सालों का लम्बा वक्त लगा.

अब जो जीव हमारे सामने है यह कॉन्सेसनेस की उस अवस्था मे है जहां उसे केवल ऊर्जा हासिल कर अपनी संख्या बढ़ानी है. इसमें कॉन्सेसनेस के गुण की शुरुआत तो हो चुकी है लेकिन अभी यह उतना एडवांस नही हुआ कि इसे हम जीव कह सकें फिर भी यह जीवन की नर्सरी तो है ही.

करोड़ों वर्षों के बाद इसी नर्सरी से वो शुरुआती माइक्रोऑर्गेनिज्म विकसित होने शुरू हुए जिनका जीवन भोजन सुरक्षा और प्रजनन पर आधारित था चेतना की इन शुरुआती इकाइयों को हम जीवन की वास्तविक शुरुआत कह सकते हैं इन्ही से विकसित होकर करोड़ों वर्षों के बाद अमीबा जैसे जीव आस्तित्व में आये जिनमे चेतना के गुण थे यह विकास प्रक्रिया की अदभुत खोज थी क्योंकि अब इस वीरान और चेतनविहीन धरती को एक नया साथी मिल चुका था जो धरती के कठोर वातावरण के साथ अपने अस्तित्व को बनाये और बचाये रखने का संघर्ष कर रहा था हालांकि पृथ्वी के आगे इस आरंभिक चेतना की कोई औकात नही थी फिर भी धरती के गर्भ में चेतना का प्रथम शुक्राणु पनप चुका था.

यह कैसे सम्भव हुआ ? इसके लिए लेबोरेटरी में हमने अमोनो एसिड बना कर देख लिया है कि रासायनिक परीक्षणों से उस तत्व को बनाया जा सकता है जो जीवन की शुरुआत के लिए सबसे जरूरी तत्व होता है.

3 अरब 80 करोड़ साल पहले धरती पर घटने वाली अमोनोएसिड वाली परिघटना करोड़ों वर्षो के विकास के बाद अमीबा वाले युग तक पहुंची इस समय तक धरती पर जीवन की असंख्य अलग अलग इकाइयां विकसित हो चुकी थीं अमीबा वाले इस युग मे धरती पर जीवन की जो बेसिक डाइवर्सिटी मौजूद थी इन्ही के वंशज दो अरब वर्षों के लंबे अंतराल के बाद और विकासवाद की बिल्कुल अलग अलग परिस्थितियों से गुजरते हुए डायनासोर युग तक पहुंचने में कामयाब हुए.

करीब साढ़े 6 करोड़ साल पहले धरती ने एक धूमकेतु की वजह से भयंकर विनाशलीला का सामना किया जिसमें डायनासोर समेत सभी बड़े जीव मारे गए.

डायनासोर काल के बाद धरती पर जीवन की जो विविधता कायम थी आज की धरती पर उन्ही के वंसज राज कर रहे हैं आज पृथ्वी पर जीवन की जो विविधता हम देखतें उसकी जड़ें साढ़े तीन अरब साल पुरानी हैं.

चेतना के शुरुआती विकास के बाद आखिर में पिछले कुछ लाख साल पहले ही होमोसेपियंस नामक जीव का उदय हुआ जो जीवन के वटवृक्ष की किसी प्राचीन शाखा से ही निकला था.

आगे चलकर यही प्राणी अपने अस्तित्व को बनाये या बचाये रखने के संघर्ष में दूसरे जीवों से बहुत आगे निकल गया फिर भी वह एक पशु से ज्यादा कुछ नही था क्योंकि दूसरे किसी भी जीव की तरह इस जानवर की चेतना भी भोजन सुरक्षा और प्रजजन तक सीमित थी जीने के लिए उसे भोजन की जरूरत थी अपने आस्तित्व को प्रकृति की कठोरता से बचाये रखने के लिए उसका सुरक्षित रहना जरूरी था और अपने वंश को आगे बढ़ाने के लिए उसे प्रजजन की जरूरत थी.
विकासवाद की दौड़ में इंसान जितना सीखता गया उस की चेतना दूसरे जीवों के consciousness के मुकाबले एडवांस्ड होता चला गया.

Consciousness की श्रेणी में इंसान ही वह जीव है जो सबसे उपर है इंसान सोच सकता है प्लानिंग कर सकता है ख्वाब देख सकता है और यह सवाल कर सकता है कि मैं कौन हूँ ? मनुष्य के कॉन्सेसनेस का यह स्तर उसके लम्बे विकासवाद की देन है.

आप देखेंगे कि मनुष्य में भी एक बहुत बड़ा वर्ग वह है जो समकालीन ज्ञान विज्ञान में पिछड़ गया है उसके consciousness में और जो ज्ञान विज्ञान और शिक्षा से जुड़ा इंसान है दोनों की समझ में काफी अंतर है.

अब हम अगर चेतना को जीवन की शर्त मान लेते हैं तब इस मामले में इंसान और चींटी दोनों एक जैसे हैं दोनों को भोजन की जरूरत पड़ती है दोनों खुद को सुरक्षित रखने की जद्दोजहद करते हैं और दोनों प्रजनन करते हैं दोनों पैदा होते हैं जवान होते हैं बूढ़े होते हैं और मर जाते हैं चेतना के पैमाने पर दोनों में कोई फर्क नही है.

अब आते हैं उस सवाल पर जो सबसे महत्वपूर्ण है आखिर वह क्या है जिसे हम "मैं" कहते हैं ?

यही वह सवाल है जो हमें किसी आत्मा को मानने पर मजबूर करता है इसे समझने के लिए हमें अपने अब तक के विकासवाद के इतिहास को समझना होगा जीवन के अरबों वर्षों के विकासक्रम में पिछले 50 हजार वर्षों का इतिहास ही हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण दौर साबित हुआ जिसमें हमने संवाद करना सीखा और सामाजिकता की ओर आगे बढ़ते चले गये.

हमारे व्यक्तित्व के लिए या जो कुछ भी हम आज हैं उसके लिए हमारा जीन्स हमारा परिवार हमारा समाज हमारा एनवायरनमेंट और हमारी व्यवस्था जिम्मेदार है. आप अपने अंदर के मैं को महसूस कर पाते हैं क्योंकि आप आज के ज्ञान विज्ञान संस्कार दर्शन की समझ के साथ जी रहे हैं यदि इस समझ को थोड़ी देर के लिए आपसे छीन लिया जाए तो आपमे और उस जानवर में कोई विशेष अंतर नही बचेगा जिसकी समझ भोजन सुरक्षा और प्रजजन तक सीमित है.

इस समय हम consciousness की उस अवस्था मे हैं जिसे हमने अपने विकासक्रम के द्वारा पिछले हजारों वर्षों के दौरान हासिल किया है जो विचार संस्कार दर्शन और जिज्ञासाओं पर आधारित है इन्ही सब की वजह से हम सोच पाते हैं और हमारे इस "मैं" का स्रोत भी यहीं से निकलता है.

आपने उन बच्चों की कहानियां पढ़ी होंगी जो किसी दुर्घटनावश जंगल मे जानवरों के बीच पलने को मजबूर हुए थे जब उन्हें पकड़ा गया तो वे हमारे समाज का हिस्सा कभी नही बन पाए उन्हें जिंदगी भर पिंजरे में कैद रखना पड़ा क्योंकि उन्हें जो वातावरण परिवार समाज और व्यवस्था मिली वो उसमे वैसे ही ढल गए.

हमारा consciousness एक बच्चे के consciousness से ऊँचे दर्जे का है एक 12 साल के बच्चे का consciousness एक बंदर के consciousness से कहीं बेहतर है बन्दर का मैं चींटी के consciousness से ऊपर है तो चींटी का मैं अमीबा के consciousness से श्रेष्ठ है.

Consciousness की ये सभी अवस्थाएं जीवन के विकासक्रम की ही देन हैं जो अरबों वर्षों के दौरान इवॉल्व हुई हैं इसलिए हमारे अंदर का मैं भी हमारे एवोल्यूशन का ही एक हिस्सा है जिसे हमें समझने की जरूरत है.

इसे समझ गए तो आत्मा परमात्मा की हमारी सभी पुरातन अवधारणाएं पल भर में समाप्त हो जाएंगी और हम एक स्वस्थ मनुष्य बन जाएंगे धर्म मजहब का संक्रमण जब तक इंसानी दिमागों में घुसा रहेगा हम इंसान होते हुए भी इंसान नही रहेंगे क्योंकि स्वस्थ विचारों से ही स्वस्थ इंसान बनता है और स्वस्थ इंसानों से ही एक स्वस्थ समाज का निर्माण सम्भव हो सकता है.

आत्मा रूह की कल्पनाएं हमारी अज्ञानता की उपज थी और इसी अज्ञानता की बुनियाद पर हमने धर्म रूपी जहालत के बड़े बड़े हवाई किले खड़े कर दिए जिसकी दीवारों के भीतर मानवता को तबाह करने के भयंकर षड्यंत्र चलाये जा रहे हैं विज्ञान और मानवतावादी विचारों के प्रहार से पाखण्डों का यह किला ध्वस्त होगा और इसकी मजबूत दिखाई देने वाली दीवारें पल भर में मिट्टी में मिल जाएंगी तब घृणा हिंसा और शोषण की मानसिकता समाप्त हो जाएगी तब ही मानवता के उस नवीन युग की शुरुआत हो पाएगी जो सत्य प्रेम और परिवर्तन पर आधारित होगा.

— शकील प्रेम
अल्लाह ने एक बार फिर हो जाने दिया

अल्लाह ने एक बार फिर
एक मस्जिद में धमाका हो जाने दिया.
अल्लाह ने एक बार फिर
एक बस्ती को उजड़ जाने दिया.

अल्लाह ने एक बार फिर
उनका साथ दिया जो अक्सरियत में थे.
झुण्ड में थे. ताकत में बीस थे
और सबसे ख़ास बात, जो अफ़ीम में धुत्त
और ज़ेहन से कुंद थे. हाथों में जिनके हुकूमत थी.
अल्लाह ने एक बार फिर कुचल जाने दिया
बूटों से क़ुदरत की बनाई सरसब्ज़ ज़मीन.

अल्लाह ने इस बार भी छोड़ दिया
उनको जो अकलियत में थे,
भीड़ से, ताकत से, नज़र से.

मस्जिद से जो आवाज़ आ रही हैं
वह आज़ान है या
मुअज़्ज़िन का कलेजा फट गया है.
अल्लाह ने एक बार फिर
इस फ़र्क को मिट जाने दिया है.

अल्लाह ने इस बार भी उस मासूम का साथ नहीं दिया
जिसने सिर झुकाया था सिजदे में अल्लाह के सामने.
अल्लाह ने उस फ़िदायीन का ही कब साथ दिया है
जो सच जानने के पहले ही मर गया.
सच जान जाता तो जीते जी मर जाता.

— फ़रीद ख़ान
'लोग क्या कहेंगे' पहले यह चिंता होती है। और यही चिंता जिंदगी से जुड़े हमारे सारे फैसलों को प्रभावित किया करती है। हमारी पढ़ाई, शादीब्याह, रहने के तौरतरीके, यहां तक कि रिश्ते भी। लोगों के प्रति यही जवाबदेही कई तरह की बंदिशें डालती है, कई तरह के सवाल खड़े करती है और कई फैसले भी इस से प्रभावित होते रहे हैं। जो बिंदास हो गए समाज द्वारा बनी कई बंदिशों से खुद को मुक्त कर लिए।

बिंदास वे माने जाते या कहे जाते हैं जिन्हें किसी की परवा न हो, पहले संस्कारों में दूसरों की परवा करना, दूसरों की भावनाओं का खयाल रखना और दूसरों के लिए जीना सिखाया जाता था। 'मैं' अहम न था, 'हम' था और यह 'हम' कई बंदिशों में रखता है, कई कुरबानियां भी मांगता है।

दुनिया पहले जाहिल, बददिमाग और पागल कहती है, बाद में महापुरुष कहने लगती है। दरअसल इतिहास बिंदास लोगों से ही बनता है। सही मायने में बिंदास होने का मतलब सिर्फ गैरजिम्मेदार हो कर बेपरवाह हो जाना नहीं है। बिंदास होने का मतलब ईमानदार होना है, सब से पहले खुद से ईमानदार होना होता है। ईमानदारी की शुरुआत ही 'सच्चाई' से होता है, जो लाइफ स्टाइल और कपड़ों से कम सोच से ज्यादा पता चलता है।

— ममता नायक
विचार कितना भी महान हो लेकिन उसे समझने वाले नहीं मिलेंगे तो सफल नहीं हो सकता है। रेसनालिजम एक महान विचार है। यह सिद्धांत व्यक्ति को सही और गलत में फर्क करना सिखाता है। युरोप में बहोत सफल रहा। लेकिन भारत में सफल नहीं हो पाया है क्योंकि भारत में लोग पढ़ते ही नहीं है। सोचते ही नहीं है। दिमाग का इस्तेमाल बिल्कुल बंद है।

मार्क्सवाद भी एक महान विचार है। रशिया चीन क्युबा में मार्क्सवाद को इतने फोलोअर्स मिले कि क्रांति हो पायी लेकिन भारत में झुठ का बोलबाला है। बेइमान आगे बढ़ते हैं। सिद्धांत की बात करने वालों को मूर्ख माना जाता है। मजदूर भी सीटु का लाभ लेकर भाजपा में चला जाता है। मोदी की मन की बात सुनता है। कावड यात्रा करता है । अयोध्या और काशी में राम और शिव के दर्शन करने की अभिलाषा रखता है। या हज यात्रा पर चला जाता है। रोज रोज मंदिर जाता है या नमाज़ पढता है। सीटु, किसान सभा, SFI DYFI का फायदा उठाता है और जिंदगी अपने तरीके से जी लेता है। फिर मार्क्सवादियों को कोसता भी है ये लाल झंडे वाले आगे नहीं बढ रहे हैं। कोई भी देश में मार्क्सवाद सफल होने के लिए समाज में इमानदार लोग चाहिए। निष्ठावान लोग चाहिए। हमारे देश में ये दो चीज बहुत दुर्लभ है इसलिए मार्क्सवाद रुका हुआ है।

लोग मार्क्सवाद की लाइन पर संघर्ष करते-करते मरने के बजाय बाहुबली के लठैत बनकर गैंगवोर में मरना ज्यादा पसंद करते हैं। पाखंड का साम्राज्य तो इतना पावरफुल है कि जिस बुद्ध ने पाखंडीयों की धज्जियाँ उडा दी थी उनके बौद्ध धर्म में भी भारत में पाखंड पाया जाता है।

रेनेसां हो, रेसनालिजम हो, मार्क्सवाद हो या विज्ञान युरोप की धरती बेहतर है। यहां तो लूंट पाखंड बेइमानी बुद्धिहीनता कायरता का साम्राज्य है।

— रेशनललिस्ट अनिल
भेड़ चाल 👇👇

कोई मुसाफिर अपनी ससुराल जा रहा था। रास्ते मे उसका जुता टूट गया।

उसने वो जूता एक पेड़ पर टांग दिया। और
नीचे लिख दिया यहाँ जूता टांगने से हर मन्नत पूरी होती है ताकि कोई उसकी टांगा हुआ जूता न चुरा ले।

फिर भेड़ चाल का तो आपको पता ही है।

मूर्खों ने पूरा पेड़ ही जुता टांग कर सुखा डाला।

हंसिए मत...ऐसे नज़ारे आपको देश मे सब जगहों पर दिखाई दे सकते हैं..!

— उमेश सोनकुले
पेरियार की नजर में जाति का विनाश कैसे हो सकता है?

पेरियार ने लिखा है कि “ हमारे देश में जाति के विनाश का मतलब है भगवान, धर्म, शास्त्र और ब्राह्मणों का विनाश। जाति तभी खत्म हो सकती है, जब ये चारों भी खत्म हो जाएं। यदि इसमें से एक भी बना रहता है, तो जाति का विनाश नहीं हो सकता। ….क्योंकि जाति की संरचना इन चारों द्वारा ही खड़ी की गई है। इंसानों को दास और मूर्ख बनाकर ही उन पर जाति थोपी जा सकती है। लोगों को विवेकसम्मत और आजाद खयाल का बनाए बिना जाति का खात्मा कोई भी नहीं कर सकता है। भगवान, धर्म, शास्त्र और ब्राह्मण दासता और मूर्खता को बढ़ावा देते हैं और जाति के अस्तित्व को मजबूत बनाते हैं।”
( पेरियार टूवार्ड्स ए नान ब्राह्ममिन मिलेनियम, फ्राम आयोथी थास टू पेरियार, वी. गीता और एस. वी. राजादुरी, पृ.335)

जाति का विनाश किताब में इसी तरह के विचार डॉ. आंबेडकर ने भी व्यक्ति किया है। उन्होंने कहा है कि जाति का समर्थन करने वाले हिंदू धर्मशास्त्रों को बारूद से उड़ा देना चाहिए।

पेरियार और डॉ. आंबेडकर दोनों का मानना था कि जाति की शुद्धता कायम रखने के लिए स्त्रियों को पुरूष की दासी बनाया गया, क्योंकि स्त्रियों नियंत्रण रखे बिना जाति नहीं कायम रखी जा सकती थी।

भारत में स्त्री मुक्ति का प्रश्न प्रत्यक्ष तौर पर जाति के खात्मे के साथ जुड़ा हुआ है।भारत में वर्ग, जाति और स्त्री मुक्ति का प्रश्न एक दूसरे के साथ जुड़ा हुआ।

नोट: ब्राह्मणों के खात्में का अर्थ किसी व्यक्ति विशेष के खात्में से नहीं है, बल्कि जाति के रूप में ब्राह्मणों के खात्मे से है। यह पेरियार और आंबेडकर दोनों लोगों ने साफ शब्दों में लिखा है।

— सिद्धार्थ रामू
“मैं धर्म को नहीं ईश्वर को मानता हूँ”,

यह आधुनिक अध्यात्मवाद है,

यह कुछ कुछ उसी तरह है जैसे लोग कहते हैं “मैं अन्धविश्वासी नहीं धार्मिक हूँ”.....

सत्य यह है कि बात धर्म की हो या ईश्वर की आपके पास अन्धविश्वास के अलावा और कोई चारा ही नहीं है.....

अच्छा ये बताओ ईश्वर का परिचय आपको किसने दिया?

कुछ पाने के लालच एवं कुछ खोने के भय से धर्म के द्वारा सदियों से विकलांग किये गए दिमाग को कुछ तो चाहिए लटकने के लिए.....

उसी से आजकल के आधुनिक अध्यात्मवाद की रचना हुई कि धर्म को न और ईश्वर को हाँ......

परन्तु धर्म ने ही ईश्वर की असत्य कल्पना से भयादोहन और शोषण की नींव रखी.....

परन्तु मैं खुश हूँ और सकारात्मक रूप से आशान्वित हूँ......

कम से कम इन्होने अन्धविश्वास और धर्म को गलत मानना शुरू तो किया.....

ये पहला कदम है सत्य की तरफ .....

कुछ समय में जब काल्पनिक ईश्वर से भी आस टूटेगी,

तब टूटेगा इनका नशा भी.....

असल में यही क्रम है,

एक प्रोसेस है,

पहले अन्धविश्वास जाते हैं,

फिर धर्म जाता है,

और फिर ईश्वर भी ......

मुझे नयी पीढ़ी से बहुत आशाएं हैं 😊

— बालेन्दु गोस्वामी
रोज नए खबर के लिए मैं कड़ी मेहनत करता हूँ ,
कई बार गिरता,कई बार संभलता हूँ,
कई बार तो मैं भीड़ के गुस्से का शिकार भी बनता हूँ ।
इन सब को कर दरकिनार हर रोज ढांढस बांधे मैं निकलता हूँ ।

हाँ !मैं एक पत्रकार हूँ ,
मैं एक चलता फिरता समाचार हूँ।
हाँ !मैं एक पत्रकार हूँ।

— स्वाति
जिन्हें धर्म से लाभ है, उन्हें धर्म की लड़ाई लड़ने दीजिए बाक़ी केवल शिक्षा की लड़ाई लड़ें क्योंकि धर्म से उन्हें कभी कोई सम्मानीय स्थान नहीं मिलेगा। सटीक पुष्टि हेतु पूरा इतिहास खुद से खंगाल डालना। शिक्षा से ही हर स्थान हासिल होगा इसलिए लड़ो पढ़ाई करने को,पढ़ो समाज बदलने को !

— आर. पी. विशाल