Forwarded from The Paperback
अगर मैं गिर जाता हूँ तो इसलिए कि मैं चल रहा थाI और चलना महत्वपूर्ण है, हालाँकि तुम गिरते भी होI
— एदुआर्दो गालेआनो
— एदुआर्दो गालेआनो
जोतीराव फुले: भारतीय पुनर्जागरण के असली पुरोधा
भारतीय पुनर्जागरण के पुरोधा राजा राममोहन राय, देवेन्द्र नाथ टैगोर, विवेकानंद और दयानंद सरस्वती नहीं, बल्कि जोतिराव फुले , शाहू जी, पेरियार, सावित्रीबाई फुले, ताराबाई शिंदे और पंडिता रमाबाई हैं। भारतीय पुनर्जागरण का केंद्र बंगाल नहीं, महाराष्ट्र है। इस पुनर्जागरण की नींव जोतीराव फुले ने डाली थी।
विश्व भर में पुनर्जागरण के केंद्र में तर्क, विवेक और न्याय पर आधारित प्रबुद्ध समाज का निर्माण रहा है। यूरोप में पुनर्जागरण के पुरोधा लोगों ने सामंती श्रेणीक्रम यानी उंच-नीच की ईश्वर निर्मित व्यवस्था को चुनौती दी। भारत में सामंती श्रेणीक्रम वर्ण-जाति के व्यवस्था के रूप में सामने आई थी। इसी का हिस्सा ब्राह्मणवादी पितृसत्ता थी। वर्ण-जाति और पितृसत्ता की रक्षक विचारधारा को ही फुले और डॉ. आंबेडकर ने ब्राह्मणवादी विचाधारा कहा। फुले और डॉ. आंबेडकर ने भारतीय सामंतवाद को ब्राह्मणवाद कहा। इस ब्राह्मणवाद को आधुनिक युग में सबसे निर्णायक चुनौती जोतीराव फुले ने दिया था।
राजा राममोहन राय, देवेन्द्र नाथ टैगोर, विवेकान्द और दयानन्द सरस्वती जाति व्यवस्था और ब्रह्मणवादी पिृतसत्ता के कुपरिणामों से चाहे जितना दु:खी रहे हों,चाहे जितना आंसू बहाएं और उसे दूर करने के लिए जो भी उपाय सुझाएं, लेकिन इन लोगों ने वर्ण-जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को खत्म करने कोई आह्वान नहीं किया। जो इस देश में पुनर्जागरण का केंद्रीय कार्यभार था। बिना वर्ण-जाति और पितृसत्ता के खात्में के समता आधारित आधुनिक भारत का निर्माण किया ही नहीं जा सकता है और बिना समता के न्याय की स्थापना संभव नहीं है। न्याय और समता की स्थापना जोतीराव फुले के संघर्ष का केंद्रीय बिंदु था।
बंगाली पुनर्जागरण के पुरोधा लोगों के बरक्स जोतीराव फुले, सावित्री बाई फुले, ताराबाई शिन्दे और डॉ. आंबेडकर ने भारतीय सामंतवाद यानी ब्राह्मणवाद की जड़ वर्ण-जाति और पितृसत्ता को अपने संघर्ष का केंद्र बिन्दु बनाया, लेकिन आधुनिक युग में इसे दुश्मन में सबसे पहले जोतीराव फुले ने चिन्हित किया और उसके खिलाफ संघर्ष का बिगुल बजाया और भारत के आधुनिकीकरण का रास्ता खोला।
महाराष्ट्र के पुनर्जारण की एक बड़ी बिशेषता यह है कि यहां पुरुषों के साथ तीन महान महिला ( सावित्रीबाई फुले, ताराबाई शिंदे और पंडिता रमाबाई) व्यक्तित्व भी हैं, जिन्होंने ब्राह्मणवाद यानी सामंतवाद को सीधी चुनौती दी और जीवन के सभी क्षेत्रों में स्त्री-पुरूष समता के लिए संघर्ष किया और साथ में वर्ण-जाति व्यवस्था को भी चुनौती दी।
इस तथ्य की ओर भी ध्यान देने जरूरी है कि बंगाली या हिंदी भाषी समाज के पुनर्जागरण के पुरोधा कहे जाने वाले लोग द्विज जातियों के हैं, जबकि महाराष्ट्र के पुनर्जागरण के पुरोधा शूद्र-अतिशूद्र जातियों के हैं या महिलाएं हैं, जिसके अगुवा जोतीराव फुले थे।
भारतीय इतिहास को देखने का द्विजवादी नजरिया ही प्रभावी रहा है। यह बात आधुनिक इतिहास कें संदर्भ में भी लागू होती है। अकारण नहीं है, पुनर्जारण के असली पुरोधा किनारे लगा दिये गये और ब्राह्मणवाद में ही थोड़ा सुधार चाहने वाले पुनर्जागरण के पुरोधा बन बैठे या उन्हें इतिहासकारों ने बना दिया।
जब तक हम भारत के बहुजनों की बहुजन-श्रमण परंपरा के असली पुरोधा जोतीराव फुले के साथ अपने को नहीं जोड़ते, तब तक न्यायपूर्ण भारत के निर्माण के वैचारिक औजार नहीं जुटा सकते।
— सिद्धार्थ रामू
भारतीय पुनर्जागरण के पुरोधा राजा राममोहन राय, देवेन्द्र नाथ टैगोर, विवेकानंद और दयानंद सरस्वती नहीं, बल्कि जोतिराव फुले , शाहू जी, पेरियार, सावित्रीबाई फुले, ताराबाई शिंदे और पंडिता रमाबाई हैं। भारतीय पुनर्जागरण का केंद्र बंगाल नहीं, महाराष्ट्र है। इस पुनर्जागरण की नींव जोतीराव फुले ने डाली थी।
विश्व भर में पुनर्जागरण के केंद्र में तर्क, विवेक और न्याय पर आधारित प्रबुद्ध समाज का निर्माण रहा है। यूरोप में पुनर्जागरण के पुरोधा लोगों ने सामंती श्रेणीक्रम यानी उंच-नीच की ईश्वर निर्मित व्यवस्था को चुनौती दी। भारत में सामंती श्रेणीक्रम वर्ण-जाति के व्यवस्था के रूप में सामने आई थी। इसी का हिस्सा ब्राह्मणवादी पितृसत्ता थी। वर्ण-जाति और पितृसत्ता की रक्षक विचारधारा को ही फुले और डॉ. आंबेडकर ने ब्राह्मणवादी विचाधारा कहा। फुले और डॉ. आंबेडकर ने भारतीय सामंतवाद को ब्राह्मणवाद कहा। इस ब्राह्मणवाद को आधुनिक युग में सबसे निर्णायक चुनौती जोतीराव फुले ने दिया था।
राजा राममोहन राय, देवेन्द्र नाथ टैगोर, विवेकान्द और दयानन्द सरस्वती जाति व्यवस्था और ब्रह्मणवादी पिृतसत्ता के कुपरिणामों से चाहे जितना दु:खी रहे हों,चाहे जितना आंसू बहाएं और उसे दूर करने के लिए जो भी उपाय सुझाएं, लेकिन इन लोगों ने वर्ण-जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को खत्म करने कोई आह्वान नहीं किया। जो इस देश में पुनर्जागरण का केंद्रीय कार्यभार था। बिना वर्ण-जाति और पितृसत्ता के खात्में के समता आधारित आधुनिक भारत का निर्माण किया ही नहीं जा सकता है और बिना समता के न्याय की स्थापना संभव नहीं है। न्याय और समता की स्थापना जोतीराव फुले के संघर्ष का केंद्रीय बिंदु था।
बंगाली पुनर्जागरण के पुरोधा लोगों के बरक्स जोतीराव फुले, सावित्री बाई फुले, ताराबाई शिन्दे और डॉ. आंबेडकर ने भारतीय सामंतवाद यानी ब्राह्मणवाद की जड़ वर्ण-जाति और पितृसत्ता को अपने संघर्ष का केंद्र बिन्दु बनाया, लेकिन आधुनिक युग में इसे दुश्मन में सबसे पहले जोतीराव फुले ने चिन्हित किया और उसके खिलाफ संघर्ष का बिगुल बजाया और भारत के आधुनिकीकरण का रास्ता खोला।
महाराष्ट्र के पुनर्जारण की एक बड़ी बिशेषता यह है कि यहां पुरुषों के साथ तीन महान महिला ( सावित्रीबाई फुले, ताराबाई शिंदे और पंडिता रमाबाई) व्यक्तित्व भी हैं, जिन्होंने ब्राह्मणवाद यानी सामंतवाद को सीधी चुनौती दी और जीवन के सभी क्षेत्रों में स्त्री-पुरूष समता के लिए संघर्ष किया और साथ में वर्ण-जाति व्यवस्था को भी चुनौती दी।
इस तथ्य की ओर भी ध्यान देने जरूरी है कि बंगाली या हिंदी भाषी समाज के पुनर्जागरण के पुरोधा कहे जाने वाले लोग द्विज जातियों के हैं, जबकि महाराष्ट्र के पुनर्जागरण के पुरोधा शूद्र-अतिशूद्र जातियों के हैं या महिलाएं हैं, जिसके अगुवा जोतीराव फुले थे।
भारतीय इतिहास को देखने का द्विजवादी नजरिया ही प्रभावी रहा है। यह बात आधुनिक इतिहास कें संदर्भ में भी लागू होती है। अकारण नहीं है, पुनर्जारण के असली पुरोधा किनारे लगा दिये गये और ब्राह्मणवाद में ही थोड़ा सुधार चाहने वाले पुनर्जागरण के पुरोधा बन बैठे या उन्हें इतिहासकारों ने बना दिया।
जब तक हम भारत के बहुजनों की बहुजन-श्रमण परंपरा के असली पुरोधा जोतीराव फुले के साथ अपने को नहीं जोड़ते, तब तक न्यायपूर्ण भारत के निर्माण के वैचारिक औजार नहीं जुटा सकते।
— सिद्धार्थ रामू
स्त्रियां कुछ कहती नहीं। वे कहेंगी भी तो सामूहिक रूप से उनकी आवाज़ परंपरा- परंपरा, संस्कृति-संस्कृति के नाम पर दबा दी जाएगी। यह परंपरा, संस्कृति, धर्म भी अंततः किसके हाथ का हथियार है? वह किसकी रक्षा करता है? किसको सशक्त करता है? गांव-गांव की लड़कियों और स्त्रियों के मन में बहुत सारे सवाल हैं पर वे किससे कहें?
https://www.tarksheel.in/2022/05/there-are-many-questions-in-the-mind-of-adivasi-girls-and-women.html
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तर्कशील भारत
यह परंपरा, संस्कृति, धर्म भी अंततः किसके हाथ का हथियार है?
एक दिन हर लड़की को, हर स्त्री को इस समाज को नए सिरे से देखना होगा और सवालों के जवाब मिलकर ढूंढना होगा।
परिवार में पितृसत्ता के खिलाफ़ मेरी सोच और लड़ाई!
बचपन से ही हमें समाज के नियम और परंपराओं का पालन करने के बारे में सिखाया गया। हमें पूर्वजों की परंपराओं को आगे बढ़ाने की शिक्षा दी गई। मेरे घर और आस-पास का माहौल ऐसा था कि मुझमें भी बचपन से ही पितृसत्तात्मक सोच और समझ विकसित हुई। हमारे स्कूली शिक्षा में भी ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी, जिससे हमें जेंडर की समझ विकसित हो। वैसे भी मैं एक पुरुष हूं, जिसे समाज में पहले से ही विशेषाधिकार मिले हुए हैं। या यूं कहें कि इस समाज के जितने भी नियम-कायदे बने हैं, वे अधिकतर पुरुषों ने ही बनाए हैं।
हमारे और आस-पास के घरों में अक्सर महिलाओं की तुलना उस ‘आदर्श महिला’ से की जाती है, जो पुरुषों की हर बात मानती हो। कभी-कभी धार्मिक ग्रंथों का भी उदाहरण दिया जाता है कि ‘वो महिलाएं कितनी आदर्श थी।’ कुल मिलाकर, महिलाओं को यह समझाया जाता है कि उनका जीवन पुरुषों के लिए है। महिलाएं अपने लिए कभी नहीं जीतीं। जो महिलाएं ऐसा करने की कोशिश करती हैं, उन्हें समाज ‘बुरी महिला’ का खिताब दे देता है।
समाज की स्थिति
हमारे समाज में जो भी नियम और कायदे बनाए गए हैं, वे पितृसत्ता को बढ़ावा देने के लिए ही बनाए गए हैं। हमारे घर, आस-पास के लोग, और दोस्त सब पितृसत्तात्मक सोच को अपना चुके हैं। उन्हें देखकर कभी महसूस ही नहीं हुआ कि वे गलत कर रहे हैं। शहरों में कहा जाता है कि बहुत से बदलाव आ रहे हैं, परंतु अगर ग्रामीण परिप्रेक्ष्य में देखा जाए, तो वहां बराबरी की बात अभी भी बहुत नई है। गांवों में हर चीज के लिए मापदंड तय हैं। वहां अगर लड़के-लड़कियां आपस में बात करते हैं, तो इसे गलत माना जाता है क्योंकि हमारी परवरिश ऐसे माहौल में हुई है।
हमारे समाज में लड़कों को यह प्रिविलेज मिला है कि वे अमूमन लगभग कुछ भी कर सकते हैं। यही कारण है कि महिलाओं की सुरक्षा पर सवाल उठते हैं। ऐसी मानसिकता वाले लड़के यौन शोषण तक कर बैठते हैं। सवाल यह है कि लड़कों को इतनी छूट क्यों दी जाती है और लड़कियों को क्यों नहीं? क्यों लड़कियों को हर काम के लिए पुरुषों से अनुमति लेनी पड़ती है? उन्हें कमतर क्यों आँका जाता है?
लैंगिक समानता की समझ
सामान्य बात है कि पुरुषों को समाज में कुछ गलत नहीं लगता क्योंकि यह समाज उनके लिए ही बना है। मुझे भी शुरुआत में कुछ गलत नहीं लगा। लेकिन एक वर्कशॉप में भाग लेने के बाद मुझे एहसास हुआ कि समानता क्या होती है, समाज में सभी वर्गों की बराबरी क्यों जरूरी है, और संविधान हमें क्या अधिकार देता है। इन सभी मुद्दों से मेरा सामना हुआ, जिसने मुझे पूरी तरह बदल दिया। इसके बाद मैंने हर जगह सवाल उठाना शुरू कर दिया—घर हो, विश्वविद्यालय हो, या दोस्तों का समूह हो।
नसीरुद्दीन सर का बहुत बड़ा योगदान रहा। उन्हीं की वजह से मैं आज इस प्लेटफॉर्म पर लिख पा रहा हूं। मुझे ऐसा लगता है कि अगर वह मेरी जिंदगी में नहीं होते, तो शायद मैं आज इस जगह नहीं होता। उस वर्कशॉप के दौरान मुझे अपनी कई गलतियों का एहसास हुआ, जिन्हें बदलना तो संभव नहीं था, पर जिनसे माफी मांग सकता था, उनसे मांगी। फिर भी, वे गलतियाँ अब भी मुझे परेशान करती हैं।
उस वर्कशॉप के बाद मेरा समाज को देखने का नजरिया पूरी तरह बदल गया। मुझे समाज के नियम-कायदों पर सवाल उठाना सही लगा। हमारे समाज में महिलाओं को अवैतनिक काम के लिए भी सराहा नहीं जाता। मैं अपनी माँ और अन्य महिलाओं को देखता हूँ, जिन्होंने कभी अपने लिए कुछ नहीं किया। यहां तक कि वे अपने हिसाब से खाना भी नहीं बना पातीं, हमेशा सबकी पसंद के अनुसार ही काम करती हैं। यह सोचकर मुझे लगा कि महिलाओं का जीवन कितना कठिन होता है। मुझे दुख है कि जब उच्च शिक्षा की बात आई, तो मेरी दीदी को बाहर पढ़ने के लिए नहीं भेजा गया, जबकि मुझे और मेरे भाइयों को कोई रोक-टोक नहीं थी। मैंने कई बार इस मुद्दे पर घर में बात की, परंतु कोई बदलाव नहीं आया।
एक घटना जिसने मुझे झकझोर दिया
दिवाली के मौके की बात है। तब तक मैं थोड़ा-बहुत खाना बनाना सीख चुका था। मेरी कोशिश रहती है कि जितना हो सके, अपने काम खुद करूँ। घरों में आमतौर पर खाना बनाना महिलाओं का काम समझा जाता है। एक दिन दीदी सब्जी बना रही थीं, और मेरे आग्रह पर उन्होंने मुझे रोटी बनाने के लिए कहा। मैं आराम से रोटियाँ बना रहा था, तभी पापा आए और बोले, “चलो, गाय का दूध निकालने चलना है।” मैंने उन्हें कहा, “रोटी बनाकर आता हूँ, तब तक रुक जाइए।” इस पर उन्हें बहुत गुस्सा आया और बोले, “ये औरतों वाला काम करने में इतना मन क्यों लगा रहा है? चल, ये काम उनका है।” माँ ने भी आकर मुझे किचन से हटा दिया। इस घटना के बाद मेरे मन में कई सवाल उठे। फिर मुझे महसूस हुआ कि पापा की क्या गलती है? उन्हें यह सब सिखाया ही नहीं गया। वे समाज के नियमों को ही मानते हैं। अगर उन्हें जेंडर की समझ होती, तो शायद वे ऐसा नहीं कहते। ऐसा नहीं है कि पितृसत्ता का
बचपन से ही हमें समाज के नियम और परंपराओं का पालन करने के बारे में सिखाया गया। हमें पूर्वजों की परंपराओं को आगे बढ़ाने की शिक्षा दी गई। मेरे घर और आस-पास का माहौल ऐसा था कि मुझमें भी बचपन से ही पितृसत्तात्मक सोच और समझ विकसित हुई। हमारे स्कूली शिक्षा में भी ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी, जिससे हमें जेंडर की समझ विकसित हो। वैसे भी मैं एक पुरुष हूं, जिसे समाज में पहले से ही विशेषाधिकार मिले हुए हैं। या यूं कहें कि इस समाज के जितने भी नियम-कायदे बने हैं, वे अधिकतर पुरुषों ने ही बनाए हैं।
हमारे और आस-पास के घरों में अक्सर महिलाओं की तुलना उस ‘आदर्श महिला’ से की जाती है, जो पुरुषों की हर बात मानती हो। कभी-कभी धार्मिक ग्रंथों का भी उदाहरण दिया जाता है कि ‘वो महिलाएं कितनी आदर्श थी।’ कुल मिलाकर, महिलाओं को यह समझाया जाता है कि उनका जीवन पुरुषों के लिए है। महिलाएं अपने लिए कभी नहीं जीतीं। जो महिलाएं ऐसा करने की कोशिश करती हैं, उन्हें समाज ‘बुरी महिला’ का खिताब दे देता है।
समाज की स्थिति
हमारे समाज में जो भी नियम और कायदे बनाए गए हैं, वे पितृसत्ता को बढ़ावा देने के लिए ही बनाए गए हैं। हमारे घर, आस-पास के लोग, और दोस्त सब पितृसत्तात्मक सोच को अपना चुके हैं। उन्हें देखकर कभी महसूस ही नहीं हुआ कि वे गलत कर रहे हैं। शहरों में कहा जाता है कि बहुत से बदलाव आ रहे हैं, परंतु अगर ग्रामीण परिप्रेक्ष्य में देखा जाए, तो वहां बराबरी की बात अभी भी बहुत नई है। गांवों में हर चीज के लिए मापदंड तय हैं। वहां अगर लड़के-लड़कियां आपस में बात करते हैं, तो इसे गलत माना जाता है क्योंकि हमारी परवरिश ऐसे माहौल में हुई है।
हमारे समाज में लड़कों को यह प्रिविलेज मिला है कि वे अमूमन लगभग कुछ भी कर सकते हैं। यही कारण है कि महिलाओं की सुरक्षा पर सवाल उठते हैं। ऐसी मानसिकता वाले लड़के यौन शोषण तक कर बैठते हैं। सवाल यह है कि लड़कों को इतनी छूट क्यों दी जाती है और लड़कियों को क्यों नहीं? क्यों लड़कियों को हर काम के लिए पुरुषों से अनुमति लेनी पड़ती है? उन्हें कमतर क्यों आँका जाता है?
लैंगिक समानता की समझ
सामान्य बात है कि पुरुषों को समाज में कुछ गलत नहीं लगता क्योंकि यह समाज उनके लिए ही बना है। मुझे भी शुरुआत में कुछ गलत नहीं लगा। लेकिन एक वर्कशॉप में भाग लेने के बाद मुझे एहसास हुआ कि समानता क्या होती है, समाज में सभी वर्गों की बराबरी क्यों जरूरी है, और संविधान हमें क्या अधिकार देता है। इन सभी मुद्दों से मेरा सामना हुआ, जिसने मुझे पूरी तरह बदल दिया। इसके बाद मैंने हर जगह सवाल उठाना शुरू कर दिया—घर हो, विश्वविद्यालय हो, या दोस्तों का समूह हो।
नसीरुद्दीन सर का बहुत बड़ा योगदान रहा। उन्हीं की वजह से मैं आज इस प्लेटफॉर्म पर लिख पा रहा हूं। मुझे ऐसा लगता है कि अगर वह मेरी जिंदगी में नहीं होते, तो शायद मैं आज इस जगह नहीं होता। उस वर्कशॉप के दौरान मुझे अपनी कई गलतियों का एहसास हुआ, जिन्हें बदलना तो संभव नहीं था, पर जिनसे माफी मांग सकता था, उनसे मांगी। फिर भी, वे गलतियाँ अब भी मुझे परेशान करती हैं।
उस वर्कशॉप के बाद मेरा समाज को देखने का नजरिया पूरी तरह बदल गया। मुझे समाज के नियम-कायदों पर सवाल उठाना सही लगा। हमारे समाज में महिलाओं को अवैतनिक काम के लिए भी सराहा नहीं जाता। मैं अपनी माँ और अन्य महिलाओं को देखता हूँ, जिन्होंने कभी अपने लिए कुछ नहीं किया। यहां तक कि वे अपने हिसाब से खाना भी नहीं बना पातीं, हमेशा सबकी पसंद के अनुसार ही काम करती हैं। यह सोचकर मुझे लगा कि महिलाओं का जीवन कितना कठिन होता है। मुझे दुख है कि जब उच्च शिक्षा की बात आई, तो मेरी दीदी को बाहर पढ़ने के लिए नहीं भेजा गया, जबकि मुझे और मेरे भाइयों को कोई रोक-टोक नहीं थी। मैंने कई बार इस मुद्दे पर घर में बात की, परंतु कोई बदलाव नहीं आया।
एक घटना जिसने मुझे झकझोर दिया
दिवाली के मौके की बात है। तब तक मैं थोड़ा-बहुत खाना बनाना सीख चुका था। मेरी कोशिश रहती है कि जितना हो सके, अपने काम खुद करूँ। घरों में आमतौर पर खाना बनाना महिलाओं का काम समझा जाता है। एक दिन दीदी सब्जी बना रही थीं, और मेरे आग्रह पर उन्होंने मुझे रोटी बनाने के लिए कहा। मैं आराम से रोटियाँ बना रहा था, तभी पापा आए और बोले, “चलो, गाय का दूध निकालने चलना है।” मैंने उन्हें कहा, “रोटी बनाकर आता हूँ, तब तक रुक जाइए।” इस पर उन्हें बहुत गुस्सा आया और बोले, “ये औरतों वाला काम करने में इतना मन क्यों लगा रहा है? चल, ये काम उनका है।” माँ ने भी आकर मुझे किचन से हटा दिया। इस घटना के बाद मेरे मन में कई सवाल उठे। फिर मुझे महसूस हुआ कि पापा की क्या गलती है? उन्हें यह सब सिखाया ही नहीं गया। वे समाज के नियमों को ही मानते हैं। अगर उन्हें जेंडर की समझ होती, तो शायद वे ऐसा नहीं कहते। ऐसा नहीं है कि पितृसत्ता का
प्रभाव सिर्फ महिलाओं पर होता है, बल्कि इसका नुकसान पुरुषों को भी होता है। वे खुलकर अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर पाते।
स्कूली शिक्षा में बदलाव की जरूरत
हमारी स्कूली शिक्षा में जेंडर पर एक अध्याय होना चाहिए। उच्च शिक्षा में तो जेंडर एक विषय के रूप में पढ़ाया जाता है, परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। अगर बचपन से ही जेंडर की समझ बन जाए, तो समाज को जेंडर के नजरिये से देखना संभव हो सकेगा। इससे समाज की कुप्रथाओं से भी बचा जा सकेगा। स्कूल में बच्चे जो गलतियां करते हैं, उनके पीछे हमारी समाज की मानसिकता और शिक्षा प्रणाली ही जिम्मेदार है। इसे जितनी जल्दी बदला जाए, उतना बेहतर होगा। इससे आने वाली पीढ़ी की जेंडर के प्रति समझ विकसित हो सकेगी, और वे चीजों को सही दृष्टिकोण से देख पाएंगे। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो समाज में बदलाव लाने के लिए हमें बहुत लंबा इंतजार करना होगा।
— फेसबुक ग्रुप से
स्कूली शिक्षा में बदलाव की जरूरत
हमारी स्कूली शिक्षा में जेंडर पर एक अध्याय होना चाहिए। उच्च शिक्षा में तो जेंडर एक विषय के रूप में पढ़ाया जाता है, परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। अगर बचपन से ही जेंडर की समझ बन जाए, तो समाज को जेंडर के नजरिये से देखना संभव हो सकेगा। इससे समाज की कुप्रथाओं से भी बचा जा सकेगा। स्कूल में बच्चे जो गलतियां करते हैं, उनके पीछे हमारी समाज की मानसिकता और शिक्षा प्रणाली ही जिम्मेदार है। इसे जितनी जल्दी बदला जाए, उतना बेहतर होगा। इससे आने वाली पीढ़ी की जेंडर के प्रति समझ विकसित हो सकेगी, और वे चीजों को सही दृष्टिकोण से देख पाएंगे। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो समाज में बदलाव लाने के लिए हमें बहुत लंबा इंतजार करना होगा।
— फेसबुक ग्रुप से